हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 223

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य


राधा-कृष्ण के एकत्व को सिद्ध और उनके द्वित्व को साध्य मानने से प्रेम की अविच्छिन्न धारावाहिकता के प्रदर्शन में राधावल्लभीय साहित्य को बहुत सहायता मिली है। साथ ही उज्ज्वल प्रेम का वर्णन करने के लिये प्रेमोदय, विरह और संयोग के क्रम-निर्वाह की भी आवश्यकता यहाँ के पदकारों को प्रतीत नहीं हुई जो ‘आदि न अंत विहार करते हैं और जिनमें आज तक परस्पर ‘चिह्नारी’-पहिचान नहीं हो पाई है, उनके स्वभावतः नित्य-नूतन प्रेम में उपरोक्त क्रम के लिये अवकाश नहीं है। ध्रुवदास जी ने बतलाया है कि इस प्रेम की ‘भाँति’[1] हमारे परिचित प्रेम की रचना से भिन्न है। ‘हित चतुरासी’ के एक पद में प्रेमोदय का हलका सा वर्णन मिलता है।[2][3] श्रीहितजी राधाकृष्ण की नित्य लीला और प्रगट-लीला में मौलिक सम्बन्ध मानते हैं। इन दोनों लीलाओं के नायक एक श्रीराधा कृष्ण ही हैं। इस तथ्य की ओर संकेत करने के लिये उन्होंने एक पद में प्रेमोदय का वर्णन कर दिया है। व्यास जी की वाणी में भी इस प्रकार का एक पद मिलता है।[4][5] व्यास जी के कनिष्ठ समकालीन श्री ध्रुवदास ने हित प्रभु के पद के आधार पर एक पूरी लीला की रचना की है और उसको नित्य-विहार की लीलाओं से भिन्न दिखलाने के लिये उसका नाम ‘व्रज-लीला’ रखा है। बाद के साहित्य में प्रेमोदय वर्णन का सर्वथा अभाव मिलता है।

वृन्दावन रस रीति की दूसरी विलक्षणता जिसने राधा-वल्लभीय साहित्य को बहुत अधिक प्रभावित किया है, वह उसका विरह-मिलन सम्बन्धी दृष्टिकोण है। इस सम्प्रदाय के अनुसार नित्य-विहार में रत रहने वाले प्रेम का स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म होता है। उसमें विरह-संयोग की भी बड़ी सूक्ष्म स्थिति होती है। इस प्रेम में विरह और संयोग के बीच का काल-व्यवधान सह्य नहीं होता। इसीलिये इसमें विरह और संयोग सदैव एक काल में उपस्थित रहते हैं। एक कालिक स्थिति का अर्थ यह है कि इसमें प्रेमी को एक काल में विरह और संयोग का पृथक-पृथक अनुभव होता रहता है। वह विरह की अतृप्ति अैर व्याकुलता के साथ संयोग की तृप्ति और उल्लास का उपभोग करता रहता है। प्रगट लीला किंवा व्रज-लीला में उज्ज्वल प्रेम का अपेक्षा कृत स्थूल रूप प्रकाशित होता है अतः वहाँ विरह-संयोग भी स्थूल हैं। वहाँ इन दोनों को लेकर लीला भी दो प्रकार की होती है और इसीलिये वहाँ लीला की अविच्छिन्नता का पूर्ण निर्वाह नहीं हो पाता। नित्य-विहार की अविच्छिन्न लीलाओं में प्रेम की मंदाकिनी अपने विरह और संयोग रूपी दोनों तटों का एक साथ स्पर्श करती हुई अखंड प्रवाहित होती रहती है। यह लीलायें प्रवहमान प्रेम-सागर में तरंगों की भाँति उठकर उसी में लय होती रहती है। इनमें घटनाओं का हेरफेर बहुत कम रहता है। सागर में तरंगों का उठना भी एक घटना है ओर बस इतनी ही घटना की आशा हमको इन लीलाओं से रखनी चाहिये। इस प्रकार की लीलाओं का स्वरूप ‘हित-चतुरासी’ के निम्नलिखित पद से समझा जा सकता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. प्रकार
  2.  नंद के लाल हरयौ मन मोर।
    हों अपने मोतिन लर पोवत काँकर डारि गयौ सखि भोर।

  3. हि.च.
  4.  मन मोहयौ मेरी मोहन माई।
    कहा करौं चित लगी चटपटी खान पान घरू बन न सुहाई।।

  5. व्यासवाणी पृ. 517

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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