श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य
वृन्दावन रस रीति की दूसरी विलक्षणता जिसने राधा-वल्लभीय साहित्य को बहुत अधिक प्रभावित किया है, वह उसका विरह-मिलन सम्बन्धी दृष्टिकोण है। इस सम्प्रदाय के अनुसार नित्य-विहार में रत रहने वाले प्रेम का स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म होता है। उसमें विरह-संयोग की भी बड़ी सूक्ष्म स्थिति होती है। इस प्रेम में विरह और संयोग के बीच का काल-व्यवधान सह्य नहीं होता। इसीलिये इसमें विरह और संयोग सदैव एक काल में उपस्थित रहते हैं। एक कालिक स्थिति का अर्थ यह है कि इसमें प्रेमी को एक काल में विरह और संयोग का पृथक-पृथक अनुभव होता रहता है। वह विरह की अतृप्ति अैर व्याकुलता के साथ संयोग की तृप्ति और उल्लास का उपभोग करता रहता है। प्रगट लीला किंवा व्रज-लीला में उज्ज्वल प्रेम का अपेक्षा कृत स्थूल रूप प्रकाशित होता है अतः वहाँ विरह-संयोग भी स्थूल हैं। वहाँ इन दोनों को लेकर लीला भी दो प्रकार की होती है और इसीलिये वहाँ लीला की अविच्छिन्नता का पूर्ण निर्वाह नहीं हो पाता। नित्य-विहार की अविच्छिन्न लीलाओं में प्रेम की मंदाकिनी अपने विरह और संयोग रूपी दोनों तटों का एक साथ स्पर्श करती हुई अखंड प्रवाहित होती रहती है। यह लीलायें प्रवहमान प्रेम-सागर में तरंगों की भाँति उठकर उसी में लय होती रहती है। इनमें घटनाओं का हेरफेर बहुत कम रहता है। सागर में तरंगों का उठना भी एक घटना है ओर बस इतनी ही घटना की आशा हमको इन लीलाओं से रखनी चाहिये। इस प्रकार की लीलाओं का स्वरूप ‘हित-चतुरासी’ के निम्नलिखित पद से समझा जा सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ प्रकार
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नंद के लाल हरयौ मन मोर।
हों अपने मोतिन लर पोवत काँकर डारि गयौ सखि भोर। - ↑ हि.च.
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मन मोहयौ मेरी मोहन माई।
कहा करौं चित लगी चटपटी खान पान घरू बन न सुहाई।। - ↑ व्यासवाणी पृ. 517
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