हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 221

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य


श्री रामराय जी की वाणी का प्रथम पद हैः-

प्यारी जू प्यारे कौं भावैं सो सहज करैं,
करैं सोई प्यारे जो भावै प्यारी कौं सदा।
तन सौं तन, मन सौं मन, प्रान-प्रान बिक्री कियौ,
जीवत न विन देखे कोऊ कबहूँ एकदा।।
प्यारी कौं पाइ कैं प्यारौ भयौ महाधनी,
प्यारी हू प्यारे कौं मानै निज संपदा।
रामराय प्रभु श्री अनंग मंजरी के पाँय,
परि-परि पाई जुग रसिक प्रेम-संपदा।।

दूसरे सुकवि महात्मा श्री भगवत मुद्रित हैं। इन्होंने, जैसा हम देख चुके हैं, राधावल्लभीय सम्प्रदाय के अनुयायी महात्माओं का प्रथम प्राप्त इतिहास ‘रसिक अनन्य माल’ के नाम से लिखा है। इनके 207 सुललित पद मिलते हैं जिनमें राधा वल्लभीय रस-पद्धति का ही निर्वाह किया गया है।

तीसरे महात्मा वल्लभ रसिक जी को तो बतलाने पर ही चैतन्य सम्प्रदायानुयायी मानना पड़ता है। उनकी सम्पूर्ण वाणी में न तो कहीं इस बात का उल्लेख मिलता है और न कहीं उसमें गौड़ीय रस-पद्धति की छाया मिलती है। गौड़ीय पद्धति में श्रीकृष्ण और राधा की प्रीति विषम मानी जाती है और इन दोनों में क्रमशः प्रेमपात्र और प्रेमी का सम्बन्ध स्वीकार किया जाता है। वल्लभ रसिक जी को यह दोनों बातें मान्य नहीं हैं। उन्होंने स्पष्ट कहा हैः-

यद्यपि प्रीति दुहूँन की कहियतु एक समान।
पै प्यारी महबूब है प्यारौ आशिक जान।।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बारह बाट अठारह पैंड़े

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श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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