हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 203

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
वाणी


औरौ भजन आहिं बहुतेरे, ते सब प्रेम-भजन के चेरे।[1]

सखियों के प्रेम भजन को समझने के लिये श्याम श्यामा के प्रेम की रीति को समझना आवश्यक होता है। वाणियों मे ही इस प्रेम-रीति का वर्णन मिलता है। श्री ध्रुवदास कहते हैं ‘मैंने प्रेम की रीति का वर्णन इसलिये किया है कि इसके श्रवण से हृदय सरस बनता है और रस-रीति के पंथ की पहिचान होती है। प्रेम रीति से परिचित व्यक्ति ही वृन्दावन रस का स्वाद पाता है।'

कही प्रेम की गति ध्रुव यातैं, सुनतहि सरस होय हिय तातै।
अरु रस-रीति पंथ पहिंचानैं, तब या रस के स्वादहि जानैं।।

श्री नागरीदास कहते हैं, ‘प्रेम-भजन के पेच वाणी में ही समझ मे आते हैं। आनन्द -कोलाहल से पूर्ण, कौतुक-निपुण और सुख-निधि नेह का स्वरूप वाणी में ही पहचाना जाता है। जिसके हृदय में वाणी का एक कण भी रमा रहता है उसी को भजन का विस्तार दिखलाई देता है। उसके हृदय में सदैव उजाला बना रहता है और उसके मन में उदार प्रेम-वस्तु स्थिर रहती है। वाणी में रसिक नृपति श्री हरिवंश ने अपने हृदय के बल से हृदय के सुख को प्रगट किया है। उनकी वाणी के मोद रूपी मृदुल मानसर में भजनी हंस रमण करते रहेंगे।’

भजन प्रेम के पेच गुन वाणी मांहि विचार।
कोलाहल कौतुक निपुण सुख निधि नेह निहार।।
वाणी कनिका उर रमें सूझै भजन पसार।
हिय उजियारौ ह्वै रहै मन में वस्तु उदार।।
हियवल हियसुख प्रगट करि रसिक नृपति हरिवंश।
गिरा मोद मृदु मानसर रमिहैं भजनी हंस।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. नेह मंजरी

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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