श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
वाणी
औरौ भजन आहिं बहुतेरे, ते सब प्रेम-भजन के चेरे।[1] सखियों के प्रेम भजन को समझने के लिये श्याम श्यामा के प्रेम की रीति को समझना आवश्यक होता है। वाणियों मे ही इस प्रेम-रीति का वर्णन मिलता है। श्री ध्रुवदास कहते हैं ‘मैंने प्रेम की रीति का वर्णन इसलिये किया है कि इसके श्रवण से हृदय सरस बनता है और रस-रीति के पंथ की पहिचान होती है। प्रेम रीति से परिचित व्यक्ति ही वृन्दावन रस का स्वाद पाता है।' कही प्रेम की गति ध्रुव यातैं, सुनतहि सरस होय हिय तातै। श्री नागरीदास कहते हैं, ‘प्रेम-भजन के पेच वाणी में ही समझ मे आते हैं। आनन्द -कोलाहल से पूर्ण, कौतुक-निपुण और सुख-निधि नेह का स्वरूप वाणी में ही पहचाना जाता है। जिसके हृदय में वाणी का एक कण भी रमा रहता है उसी को भजन का विस्तार दिखलाई देता है। उसके हृदय में सदैव उजाला बना रहता है और उसके मन में उदार प्रेम-वस्तु स्थिर रहती है। वाणी में रसिक नृपति श्री हरिवंश ने अपने हृदय के बल से हृदय के सुख को प्रगट किया है। उनकी वाणी के मोद रूपी मृदुल मानसर में भजनी हंस रमण करते रहेंगे।’ भजन प्रेम के पेच गुन वाणी मांहि विचार। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ नेह मंजरी
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