हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 202

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
वाणी


वन्दौं सुमति रसज्ञ जन अति करुना के एैन।
बानी दंपति मिलन कैं जिननि बनाये नैंन।।
इन नैंनन-बल जे चलैं पहुँचैं निस्संदेह।
भटकैं तर्कीं मंदमति नरपशु हीन-सनेह।।[1]

रसिकों ने अनेक रूपकों से वाणी के स्वरूप को स्पष्ट किया है। श्री प्रियादास कहते हैं ‘प्रेम जब मेघ के समान हृदय मे गरज उठता है जो उसकी सार रूप वाणी विद्युत की भाँति मन, बुद्धि और चित्त के ऊपर गिर कर बड़ी गहरी चोट पहुँचाती है।’

प्रेम गरजि हिय में उठ्यौ बानी बिजुरी सार।
मन, बुधि, चित पड़ी भीतर-भीतर मार।।

श्री चाचाजी कहते हैं ‘वाणी प्रेम के द्वारा भेजी हुई वह पाती[2] है जिसमें सब बातें विस्तार पूर्वक एवं सुन्दर ढंग से लिखी हुई हैं। इस पाती को पढ़कर और समझ कर जो चलते हैं वे प्रियतम के घर पहुँचते हैं।’

बानी पाती प्रेम की ब्यौरौ लिख्यौ बनाइ।
बाँच बूझि कैं जो चलै प्रीतम के घर जाइ।।

हम देख चुके हैं कि राधावल्लभीय उपासना का लक्ष्य सखी भाव की प्राप्ति कराना है। सखियाँ श्यामा-श्याम के पारस्परिक प्रेम से आसक्त हैं और सदैव उसी का भजन करती रहती हैं। सखियों के भजन को प्रेम-भजन, प्रेम का भजन, कहते हैं। इस भजन की श्रेष्ठता इस बात से समझी जा सकती है कि जो प्रेम थोड़ा-सा भी भजन के साथ मिलकर उसको स्वाद युक्त और श्रेष्ठ बना देता है वही इसमें आस्वाद्य बनता है, उसी का इसमें भजन किया जाता है। भजन के अनेक प्रकार हैं किन्तु वे सब इस प्रेम भजन के दास हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अष्टयाम
  2. पत्र

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श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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