श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
श्री हित हरिवंश
एतौं है सब कुटुम्ब हमारौ। दूसरी घटना दैवी और आसुरी सृष्टियों के भेद को लेकर घटी थी। भगवद्गीता में इन दोनों सृष्टियों का वर्णन किया गया है और उन दिनों श्री वल्लभाचार्य ने इन दोनों के भेद पर बहुत भार दे दिया था। श्री हिताचार्य से जब इस संबंध में पूछा गया तो उन्होंने सरलता पूर्वक कह दिया, ‘हौं नाहि- जानत, मेरे तो दोऊ उपास्य हैं।’ हितप्रभु ने अपने व्यक्तित्व में उस महान रसिक स्वरूप को प्रत्यक्ष किया था, जिसका वर्णन उन्होंने अपनी रचनाओं में आदर के साथ किया है। श्रीराधा सुधानिधि में उन्होंने उन महापुरुषों की वंदना की है, ‘जो नव कैशोर के माधुरी समूह के कारण अत्यन्त रमणीय अंगच्छवि वाली एवं अत्यन्त प्रेमोल्लास से पूर्ण राधिका का तद्गत चित्त से निरवधि ध्यान करते हैं। कर्मों ने उनका स्वयं ही त्याग कर दिया है। वे भगवद्धर्मों के प्रति भी ममता रहित हैं और सर्वाश्चर्य पूर्ण रसमयी गति को प्राप्त हो चुके हैं।' कैशोराद्भुत माधुरी भर धुरीणांगच्छविं राधिका, चाचा हित वृन्दावनदास ने श्रीहितप्रभु के रसिकाचार्य रूप का चित्रण अपने एक पद में बसंत के रूपक से किया है। भाव की सरसता, सघनता एवं नूतनता में रसिक का वसंत के साथ सहज सादृश्य है। चाचा जी कहते हैं ‘गौरांग श्री वृषभानुनंदिनी के भजन की मूर्ति व्यासनंदन [3] कौतुक मय वसंत-ऋतु है। उनका निर्मल हृदय ही स्वच्छ थाँवला है जिसमें युगल का सुहाग रूपी अमृत जल भरा हुआ है। इस थाँवले में श्रृंगार-कल्पतरु का बाग खिला हुआ है जिसमें से वाणी रूपी पराग द्रवित होता रहता है। व्यासनंदन के मुख पर नित्य नूतन कांति बढ़ती रहती है और उसने कमल की शोभा को भी लुप्त कर दिया है। उनके हृदय में दशधा भक्ति की बेली छा रही है जो अनंत भावों रूपी फल-फुल से लदी हुई है। रसमय वचनों की रचना ही आम्र-मंजरी है और उनकी अनुपम सुमति ही मंगल-घट है जो अनुराग के वसन से ढ़क रहा है। रस की विविध अभिलाषायें ही सुन्दर सौरभ है और उनके तन-मन अभंग प्रेम-रस से सदैव भीगते रहते हैं। इस प्रकार श्री हरिवंश चन्द्र वसंत की भाँति सदैव शोभित रहते हैं और मैं उनका सुयश गाता रहता हूँ।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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