हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 160

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
श्री हित हरिवंश


एतौं है सब कुटुम्ब हमारौ।
सैन, धना अरु नामा, पीपा अरु कबीर रैदास चमारौ।।[1]

दूसरी घटना दैवी और आसुरी सृष्टियों के भेद को लेकर घटी थी। भगवद्गीता में इन दोनों सृष्टियों का वर्णन किया गया है और उन दिनों श्री वल्लभाचार्य ने इन दोनों के भेद पर बहुत भार दे दिया था। श्री हिताचार्य से जब इस संबंध में पूछा गया तो उन्होंने सरलता पूर्वक कह दिया, ‘हौं नाहि- जानत, मेरे तो दोऊ उपास्य हैं।’

हितप्रभु ने अपने व्यक्तित्व में उस महान रसिक स्वरूप को प्रत्यक्ष किया था, जिसका वर्णन उन्होंने अपनी रचनाओं में आदर के साथ किया है। श्रीराधा सुधानिधि में उन्होंने उन महापुरुषों की वंदना की है, ‘जो नव कैशोर के माधुरी समूह के कारण अत्यन्त रमणीय अंगच्छवि वाली एवं अत्यन्त प्रेमोल्लास से पूर्ण राधिका का तद्गत चित्त से निरवधि ध्यान करते हैं। कर्मों ने उनका स्वयं ही त्याग कर दिया है। वे भगवद्धर्मों के प्रति भी ममता रहित हैं और सर्वाश्‍चर्य पूर्ण रसमयी गति को प्राप्त हो चुके हैं।'

कैशोराद्भुत माधुरी भर धुरीणांगच्छविं राधिका,
प्रेमोललास भराधिकां निरवधिध्यायन्ति ये तद्धियः।
त्यक्ताः कर्मभिरात्मनैव, भगवद्धर्मे प्यहो निर्ममाः,
सर्वाश्चर्य गतिं गता रसमयों तेभ्यौं तेभ्यो महद्भ्यो नमः।।[2]

चाचा हित वृन्दावनदास ने श्रीहितप्रभु के रसिकाचार्य रूप का चित्रण अपने एक पद में बसंत के रूपक से किया है। भाव की सरसता, सघनता एवं नूतनता में रसिक का वसंत के साथ सहज सादृश्य है। चाचा जी कहते हैं ‘गौरांग श्री वृषभानुनंदिनी के भजन की मूर्ति व्यासनंदन [3] कौतुक मय वसंत-ऋतु है। उनका निर्मल हृदय ही स्वच्छ थाँवला है जिसमें युगल का सुहाग रूपी अमृत जल भरा हुआ है। इस थाँवले में श्रृंगार-कल्पतरु का बाग खिला हुआ है जिसमें से वाणी रूपी पराग द्रवित होता रहता है। व्यासनंदन के मुख पर नित्य नूतन कांति बढ़ती रहती है और उसने कमल की शोभा को भी लुप्त कर दिया है। उनके हृदय में दशधा भक्ति की बेली छा रही है जो अनंत भावों रूपी फल-फुल से लदी हुई है। रसमय वचनों की रचना ही आम्र-मंजरी है और उनकी अनुपम सुमति ही मंगल-घट है जो अनुराग के वसन से ढ़क रहा है। रस की विविध अभिलाषायें ही सुन्दर सौरभ है और उनके तन-मन अभंग प्रेम-रस से सदैव भीगते रहते हैं। इस प्रकार श्री हरिवंश चन्द्र वसंत की भाँति सदैव शोभित रहते हैं और मैं उनका सुयश गाता रहता हूँ।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. साधुनि की स्तुति
  2. रा. सु. 80
  3. हितप्रभू

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श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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