श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
श्री हित हरिवंश
श्री व्याससुवन कौतुक वसंत--गौरंग भजन मूरति लसंत। पूर्वोक्त चार रूपों में व्यक्त रहने वाले श्री हरिवंश को सेवक जी ने परात्पर तत्त्व माना है और उनसे अतिरिक्त अन्य सत्ता का स्वीकार नहीं किया। अपनी वाणी के पंचम प्रकरण में वे कहते हैं, ‘श्री हरिवंश ही सुन्दर ध्यान हैं और वहीं विशद विज्ञान हैं। श्री हरिवंश नाम और गुण रूप हैं, उनका नाम और उनके गुण उनके स्वरूप से अभिन्न हैं। श्री हरिवंश ही प्रेम रस रूप हैं। वहीं परम परमाक्षर हैं और वहीं कृपा के आगार हैं। श्री हरिवंश ही आत्मा एवं प्रगट परमानंद हैं और वही मन के लिये परम प्रमाण हैं। वही जीवन हैं और वही विपुल सुख-संपत्ति हैं। श्री हरिवंश गोत्र, कुल, देव एवं जाति हैं और वही हित का स्वरूप एवं ऋद्धि-सिद्धि हैं। श्री हरिवंश वेद की प्रसिद्ध कर्म-कांडात्मक विधि हैं और वही उपनिषद्-प्रतिपाद्य अद्वय ब्रह्म-तत्त्व हैं। श्री हरिवंश पातंजल योग शास्त्र प्रतिपादित अष्टांग योग हैं और वहीं पुराण प्रतिपादित पुण्यों का भोग हैं। श्री हरिवंश ही न्याय-वैषशिक द्वारा प्रतिपादित प्रमाण-परंपरा हैं और वही रस-शास्त्र द्वारा पल्लवित प्रियता हैं। श्री हरिवंश ही इतिहास, साहित्य शास्त्र, संगीत शास्त्र एवं चौसठ कलाओं के द्वारा गोचर पदार्थ हैं और वही जगन्मंगल स्वरूप हैं।’[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ से. वा. 5-2-4
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