श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
श्री हित हरिवंश
जय जय जगत प्रसंस नवल की बाँसुरी। हितप्रभु का चौथा रूप आचार्य रूप है। आचार्य का अर्थ है धर्म-संस्थापक। हितप्रभु नवीन धर्म का प्रवर्तन करने के लिये प्रगट हुए थे। साधारणतया विरोधी सिद्धान्तों के खंडन के साथ यह कार्य किया जाता है। धर्म-संस्थापक आचार्यों की जितनी कीर्ति उनके रचनात्मक कार्य के लिये है, उतनी ही उनके खंडनात्मक कार्य के लिये है। हित प्रभु खंडनात्मक कार्य में बिलकुल प्रवृत्त नहीं हुए। भक्ति-विरोधी सिद्धान्तों की ओर तो उन्होंने दृष्टिपात ही नहीं किया, भक्ति के क्षेत्र में भी उन्होंने समन्वयात्मक दृष्टि रखी। सेवक जी ने बतलाया है ‘हितप्रभु ने सब प्रकार की भक्तियों का व्याख्यान किया और जो जिस भाव से भगवान को भज रहा था, उसको उसी भाव में स्थिर कर दिया। सब अवतारों के उपासकों के लिये उनके हृदय में स्थान था। उन्होंने सब उपासकों की एक ही रीति बतलाई और वह श्रवण, कथन और स्मरण में प्रतीति रखना है। उन्होंने व्रज की रीति का वर्णन किया और नंदनंदन के बाल-चरित्रों को प्रेम की नींव बतलाया। इसके बाद उन्होंने अपने धर्म का व्याख्यान किया।'[2] हितप्रभु का संपूर्ण जीवन भी विरोध-शुन्य था। अनुश्रुति से प्राप्त दो घटनाएँ यहाँ दी जाती हैं। श्री हरिराम व्यास को नित्य-विहार प्रत्यक्ष था और वे अधिकतर इस भाव में मग्न रहते थे। एक बार अपने सरस सिद्धान्त को उत्कृष्टता सिद्ध करते हुए उन्होंने ‘निर्गुणिया’ कहे जाने वाले संतों के सम्बन्ध में कुछ बातें कह दीं। परिणाम यह हुआ कि उनके नेत्रों में सहज रूप से झलकने वाले राधा श्याम-सुन्दर उनकी दृष्टि से ओझल हो गये। व्यास जी जल-विहीन मीन की भाँति व्याकुल हो उठे और हितप्रभु के पास जाकर इस आकस्मिक अकृपा का कारण पूछा। बात पूरी होते न होते हितप्रभु ने उत्तर दे दिया ‘अपार करुणा-सागर वृन्दावन-ईशों को भी कृपादान से विमुख बनाने वाली एक मात्र भक्त-निंदा है और वही, मालूम होता है, आपसे बन गई है। व्यास जी ने अपनी भूल स्वीकार की और जन्म भर भक्तों को इष्ट के समान मानते रहे। अपने एक पद में उन्होंने इनही ‘निर्गुणिया’ भक्तों को अपने कुटुम्ब के अन्तर्गत बतलाया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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