हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 132

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
श्रीराधा

जहाँ लगि दुति अरु कांति बखनी, कुँवरि अंग देखत सकुचानी।
छवि ठाड़ी आगे कर जोरै, गुन की कलाचौंर सिर ढ़ोरै।।
चित्र भई तेहि ठाँ चतुराई, पंग भई चितवत चपलाई।
छवै न सकत अंगनि मृदुताई, अति सुकुंवार कुंवरि तन माई।।
यातैं उपमा कछु उर आई, बात खोज बिनु जात न पाई।
रति इक हेम छविहि उर आनै, ताहि समुझि सुमेर पहिचानै।।
एसौ रूप प्रकास तहाँ, नखकी सम नहिं भान।
तेहि ठाँ उमपा-दीपकौ, धरिबौ बड़ौ अयान।।[1]

श्री राधा के अद्भुत रूप-वैभव को समझने में सब से बड़े सहायक श्‍याम सुन्‍दर हैं। ‘वे रस के सागर हैं और अपने प्रताप, रूप, गुण, वय और वल के लिये प्रसिद्ध हैं। किन्‍तु वे श्रीराधा के किंचित् भ्रम-विलास से नाद-मोहित मृग के समान विथकित हो जाते हैं।'

(जय श्री) हित हरि वंश प्रताप, रूप, गुण, वय, बल श्‍याम उजागर।
जाकी भ्रू-विलास बस पशु इव दिन विथकित रस-सागर।।[2]

श्री स‍हचरि सुख कहते हैं ‘जो प्रजांगनायें में अपने रूप-प्रकाश से चन्‍द्र को पराजित करती हैं, वे नंदकुमार को देखकर चौंधिया जाती हैं। श्रीहरि श्‍याम तो तभी दीखते हैं जब वे कीर्ति-सुता[3] के निकट आते हैं।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रस हीरावली
  2. हि० च० 52
  3. श्रीराधा

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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