श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
श्रीराधा
इन असाधारणा वृषभानुनंदिनी का परिचय देते हुए सेवक जी कहते हैं, वे सुभग सुन्दरी हैं, उनका सर्वांग सहज शोभा से मंडित है और उनका रूप भी सहज है। वे सहज आनंद का वर्णन करने वाली मेघ माला हैं और सहज-रूप वृन्दावन की नित्य उदित चन्द्रिका हैं। उनकी नित्य नवल-केलि सहज है आर उनकी प्रीति एवं सुख चैन सहज है। उनके प्रत्येक अंग में सहज माधुर्य भर रहा है, जिसका वर्णन मुझसे नहीं होता।’ सुभग सुन्दरी, सहज शोभा सर्वांगं प्रति, सहज रूप वृषभान नंदिनी। सहज केलि नित-नित नवल, सहज रंग सुख-चैन। सहज माधुर्य सर्वथा अवर्णीय होता है। तीनों लोकों में जिसकी समता नहीं है, उसका वर्णन कैसे हो ? हितप्रभु ने कहा है ‘श्रीराधा के अंगों के सहज माधुर्य की बात सुन कर देवलोक भू लोक और रसातल के कवि-कुल की मति दहल जाती है। वे इस चक्कर में पड़ जाते हैं कि हम इसको किसके समान बतलाकर समझावें।’ देवलोक, भूलोक, रसातल सुनि कवि-कुल मति डारिये। श्रीध्रुवदास ने, इस रूप के वर्णन में अपने को सर्वथा असमर्थ पाकर भी, इसकी कुछ ‘खोज’[3] बतलाने की चेष्टा की है। जिस प्रकार एक रत्ती सोने को देखकर सुमेरु पर्वत की कल्पना की जा सकती है, उसी प्रकार इन ‘खोजों’ के सहारे भी राधा के सहज सौन्दर्य को कुछ समझा जा सकता है। उन्होंने बतलाया है, ‘संसार में जितनी द्युति और कांतियाँ बखानी जाती हैं, वे सब राधा कुंवरि के अंगों को देखकर सकुचा जाती हैं। छवि उनके आगे हाथ जोड़कर खड़ी रहती है और गुण की कलायें उनके ऊपर चँवर ढ़ुराती हैं। उनको देखकर चतुराई चित्र बन जाती है और चपलता पंगु हो जाती है। मृदुला उनके अंगों का स्पर्श नहीं कर सकती, श्री वृषभानु कुंवरि का तन इतना अधिक सुकुमार है। जहाँ भानु भी श्रीराधा के चरण-नख में से निकलने वाले रूप-प्रकाश की समता नहीं कर सकता, वहाँ उपमा-दीपक का रखना बड़ी ना-समझदारी का काम है।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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