हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 131

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
श्रीराधा

इन असाधारणा वृषभानुनंदिनी का परिचय देते हुए सेवक जी कहते हैं, वे सुभग सुन्‍दरी हैं, उनका सर्वांग सहज शोभा से मंडित है और उनका रूप भी सहज है। वे सहज आनंद का वर्णन करने वाली मेघ माला हैं और सहज-रूप वृन्‍दावन की नित्‍य उदित चन्द्रिका हैं। उनकी नित्‍य नवल-केलि सहज है आर उनकी प्रीति एवं सुख चैन सहज है। उनके प्रत्‍येक अंग में सहज माधुर्य भर रहा है, जिसका वर्णन मुझसे नहीं होता।’

सुभग सुन्‍दरी, सहज शोभा सर्वांगं प्रति, सहज रूप वृषभान नंदिनी।
सहजानंद कादंबिनी, सहज विपिन वर उदित चंदिनी।।[1]

सहज केलि नित-नित नवल, सहज रंग सुख-चैन।
सहज माधुरी अंग प्रति, मोपै कहत बनै न।।

सहज माधुर्य सर्वथा अवर्णीय होता है। तीनों लोकों में जिसकी समता नहीं है, उसका वर्णन कैसे हो ? हितप्रभु ने कहा है ‘श्रीराधा के अंगों के सहज माधुर्य की बात सुन कर देवलोक भू लोक और रसातल के कवि-कुल की मति दहल जाती है। वे इस चक्कर में पड़ जाते हैं कि हम इसको किसके समान बतलाकर समझावें।’

देवलोक, भूलोक, रसातल सुनि कवि-कुल मति डारिये।
सहज माधुरी अंग-अंग की कहि कासौं पटतरिये।।[2]

श्रीध्रुवदास ने, इस रूप के वर्णन में अपने को सर्वथा असमर्थ पाकर भी, इसकी कुछ ‘खोज’[3] बतलाने की चेष्टा की है। जिस प्रकार एक रत्ती सोने को देखकर सुमेरु पर्वत की कल्‍पना की जा सकती है, उसी प्रकार इन ‘खोजों’ के सहारे भी राधा के सहज सौन्‍दर्य को कुछ समझा जा सकता है। उन्‍होंने बतलाया है, ‘संसार में जितनी द्युति और कांतियाँ बखानी जाती हैं, वे सब राधा कुंवरि के अंगों को देखकर सकुचा जाती हैं। छवि उनके आगे हाथ जोड़कर खड़ी रहती है और गुण की कलायें उनके ऊपर चँवर ढ़ुराती हैं। उनको देखकर चतुराई चित्र बन जाती है और चपलता पंगु हो जाती है। मृदुला उनके अंगों का स्‍पर्श नहीं कर सकती, श्री वृषभानु कुंवरि का तन इतना अधिक सुकुमार है। जहाँ भानु भी श्रीराधा के चरण-नख में से निकलने वाले रूप-प्रकाश की समता नहीं कर सकता, वहाँ उपमा-दीपक का रखना बड़ी ना-समझदारी का काम है।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. से. वा. 7-6
  2. हि. च. 52
  3. निशानी

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श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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