सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग सारंग
माधव जी! मैं वह अपराधी हूँ, जिसने (मनुष्य) जन्म पाकर कोई भलाई नहीं की, अब आप ही बताइये कि मेरा निर्वाह (उद्धार) किस प्रकार हो? हाथी से चींटी तक (बडत्रे-छोटे) सबसे यमपुर (नरक) की बात कही गयी है कि पाप का फल दुःख और पुण्य का फल सुख है, जिसके भोग का अवसर हो, उसे भोगना ही पड़ता है। मुझे भी (शास्त्र का) वही मार्ग बता दिया, फिर (अपने कर्म के अनुसार) नरक पाऊँ या स्वर्ग। किंतु हे स्वामी! किसके बल से मैं (संसार-सागर से) पार होऊँ? मुझमें तो कुछ भी भक्ति नहीं है। हे जगत्पति, जगदीश्वर! हँसकर बता दो कि ‘तुम्हारी बात यों पटेगी (इस प्रकार तुम्हारा उद्धार होगा)।’ हे करुणासागर! हे कृपालु! आपकी कृपा को छोड़कर दूसरे किसकी शरण देखूँ? आपके चरणकमलों की शपथ-मेरी बात (दशा) सुनकर आप बहुत हँसेंगे? जब मेरा शरीर छूटने लगा, तब यमराज के घर (यमलोक) में जितने दूत थे, सबको उन्होंने (मुझे पकड़ने) भेज दिया। जिन यमदूतों के दारुण स्वरूप को देखकर पापी लोग म्याऊँ-म्याऊँ (भयपूर्ण आर्त स्वर) करने लगते हैं, वे अपने-अपने शान धराये (तीक्ष्ण) हथियार लेकर दाँत पीसते हुए (क्रोध में भरे) यमलोक से हमारे घर के लिये चल पड़े। (गाँव में आकर) मुझे ढूँढ़ते-ढूँढ़ते थक गये; किंतु (मुझ पापी का नाम लेने से पाप होगा, इस भय से) कोरी और चाण्डाल तक किसी ने उन्हें मेरा घर नहीं बताया। यमराज के वे सेवक तब अत्यन्त क्रोध में भर गये, उन्होंने मुझे पकड़ लिया। मैं छूट सकता नहीं था। जहाँ मैं मृतक पड़ा था, वहाँ से लेकर नगर में घर-घर मुझे घुमाते फिरे और उसी क्रोध में मुझे बहुत मारा; (इतना मारा कि) उसका वर्णन मैं कहाँतक कर सकता हूँ। (यमदूतों की मार से) पड़ा-पड़ा मैं ‘हाय! हाय!’ करके पुकार किया; किंतु राम-नाम नहीं कहता था (राम-नाम मुख से निकलता ही नहीं था)। सम्बन्धी लोग करताल-ढोलक बजाते हुए मेरे शव को सजाकर (श्मशान को) ले चले। सूरदास जी कहते हैं- मेरी अच्छी बनी (बड़ी दुर्गति हुई) दाव (पौ) तो गया ही, वस्त्र (चौपड़ खेलने का कपड़ा) भी चला गया। (भजन का अवसर तो गया ही, मनुष्य-जन्म भी समाप्त हो गया।)
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