सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग धनाश्री
हे प्रभु! मेरे गुण-अवगुण का विचार मत कीजिये। मुझ शरण में आये हुए की लज्जा रखिये और यमराज के भय को दूर कर दीजिये। मैंने योग, यज्ञ, जप, तप नहीं किया है और निर्मल वेद का पाठ भी नहीं किया है। जूठे के लोभी कुत्ते के समान विषय-रस का अत्यन्त लोभी रहा, चित्त को विषय से दूर नहीं रखा। कर्मभोग के संकट से विवश मैं जिस-जिस योनि में घूमता रहा, मैंने यही कमाई की कि काम, क्रोध, मद, लोभ से ग्रस्त होकर विषयरूपी तीक्ष्ण विष को ही खाता रहा। यदि पर्वतराज हिमालय को स्याही बनाकर, समुद्र में घोलकर, (स्वयं) ब्रह्मा जी कल्पवृक्ष की कलम हाथ में लेकर सारी पृथ्वी पर मेरे अवगुणों को लिख डालें, तो भी स्वामी! उनका अन्त नहीं होना है। आपके समान दूसरा कोई (दयामय) है नहीं, अतः दीन, कामी, कुटिल, मलीन, कुदर्शन (जिसको देखना अशुभ हो), अपराधी और बुद्धिहीन मैं दूसरे किसका भजन करूँ। आप तो सर्वरूप, अनन्त, दयानिधान, अविनाशी तथा सुखराशि हैं; किंतु आपके भजन के प्रताप को मैंने जाना नहीं, इसी से मोह के पाश (बन्धन) में पड़ गया। आप सर्वज्ञ हैं, सब प्रकार से समर्थ हैं, अशरण को शरण देने वाले हैं; अतः हे मुरारि! मोह के समुद्र में डूबते हुए सूरदास को भुजा फैलाकर (हाथ बढ़ाकर) पकड़ (उबार) लीजिये। |
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