विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीगोपियों में दास्य का हेतु-3‘देव्याः’ बहुवचन है ना! बोलीं- सामूहिक आन्दोलन करो कि ये देवतालोग स्वर्ग में अप्सराओं को क्यों रखते हैं? निकाल दें यहाँ से, हमारे स्वर्ग में अप्सरा न रहने पावें, केवल देवी-देवी रहेंगी। अब देवता लोगों की सिट्टी-पिट्टी गुम, किसी की कुछ चले ही नहीं कि क्या करें, कैसे मनावें इनको? इसी बीच वृन्दावन में श्यामसुन्दर की बाँसुरी बजी। अब तो उसे सुनकर देवी लोग तन्मय हो गयीं; और फिर जब देवता आये तो देवता ने कहा कि अब तो मालूम पड़ता है कि कुछ मूड ठीक-ठिकाने है तो बोले कि अरे चलो, वृन्दावन चलें; श्यामसुन्दर का रास होने वाला है, देखते चलोगी? बाँसुरी बजा रहे हैं। तुम भी चलोगी? बोलीं- हाँ-हाँ, चलेंगे। ‘विमानगतयः’ तुरन्त मान छोड़कर वे बिना श्रृंगार किए और देवताओं के साथ जो चलीं तो वर्णन किया है- भ्रश्यत् प्रसूनकबरा मुमुहुर्विनीव्यः । इनके शिर के जो पुष्प, आभूषण, थे वे गिर गये, और यहाँ तक कि उनके कपड़े भी उनके वश में नहीं रहे- स्त्रस्तस्त्रस्तनिबद्धनीवि विलसद् गोपी नीवी उनकी छूट गयी, माने कमर में कपड़ा बाँधने की उनकी जो रस्सी होती है वह खुल गयी! यह अतिशय काम का लक्षण है। तो देवियों की यह दशा हुई।
नारायण! गोपियाँ कहती हैं कि आप लक्ष्मी की बात सुनकर नाराज हो गये, तो लक्ष्मी के साथ और दो-चार नाम जोड़ देते हैं। सरस्वती, पार्वती, उमा, हेमावती भी मोहित हो गयीं। पुराण में एक ऐसी कथा आती है जिसमें पार्वती को भी वंशी सुनकर मोह हो गया। सरस्वती को भी वंशी सुनकरके मोह हो गया, सरस्वती जी मोहित होकर अंतिम बासुरी बन गयीं। जड़भावपन्न हो गयी, सरस्वती का ज्ञान, ध्यान, लुप्त हो गया, और वह स्वयं बाँसुरी बनने के लिए तत्पर हो गयीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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