विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीगोपियों का समर्पण-पक्षमैं डर गयी, डर गयी तो उन्होंने पकड़कर एक चपत लगा दी। जानकी जी ने दूर से देखा और दौड़कर आयीं, और हमारा हाथ पकड़ लिया। बोलीं- यह लड़की तो हमको बहुत प्यारी लगती है, रोज हमारे लिए माला ले आती है, फूल बनाती है। यह भाव की दृष्टि है। भाव दूसरी वस्तु है और तत्त्व और तत्त्वज्ञान दूसरी चीज है, वहाँ तो अध्यस्त और अधिष्ठान का विचार है। तत्त्व वस्तु जो है वह निराकार, निर्विकार, एकरस है। भक्ति व्यक्ति की शक्ति है, और ब्रह्म अव्यक्त का स्वरूप है। जीवन में जो आनन्द का स्वरूप है, उसी को ब्रह्मनिष्ठा बोलते हैं। वह वृत्ति है। गोपियों ने कहा- अरे, हम भी अमुमुक्षु हैं, हमको मोक्ष नहीं चाहिए, हमको ब्रह्मज्ञान नहीं चाहिए। हमको अर्थ नहीं चाहि, धर्म नहीं चाहिए, काम नहीं चाहिए, मोक्ष नहीं चाहिए; हमको तो चाहिए यह कि हम तुम्हारे पाँव के नीचे कुचल जायँ। हम तुम्हारे पाँव के नीचे पड़कर मर जाना चाहती हैं। अब आओ कृष्ण, धर्मशास्त्र की बात करें तुमसे-
तुम यह कहते हो कि स्त्री का अपना स्वधर्म है और ‘स्वधर्मे निधनं श्रेयः परमधर्मो भयावहः’ अपने धर्म में मरना अच्छा है कि और दूसरे के धर्म में स्थित होना, उसका पालन करना, उतना ही भयंकर है। तो स्त्री का धर्म क्या है? स्त्री का धर्म है क पति, अपत्य (पुत्र) और सुहृद्, इनके अनुकूल होकर स्त्री रहे। हे अंग। हे कृष्ण प्यारे! यह स्त्री का स्वधर्म है। बात ठीक है। ‘इति धर्मविदा त्वयोक्तम्’ तुम्हारे धर्म के ज्ञान पर हमको कोई संदेह नहीं है, तुम धर्मशास्त्री हो, मनुजी ने जैसा कहा वैसा ही तुमने कहा; जैसा सनातन धर्म है वही तुमने कहा। स्त्रीधर्म यही है कि पति, पुत्र, सुहृद्, सबके अनुकूल रहकर अपने पतिव्रत धर्म का ठीक-ठीक पालन करें। लेकिन बाबा! हमने इस बात को मना कहाँ किया? हमारे पति, हमारे अपत्य, हमारे सुहृद्, एक तुम ही हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
प्रवचन संख्या | विषय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज