विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीप्रेम में सूखी जा रहीं गोपियाँ आखिर बोलींयह दिल में से जो वाणी निकलती है ना, इससे पता चलता है कि कितना प्रेम है। सखी शायद उनके मन में हो कि गोपियों की मीठी-मीठी प्रेमभरी बातें सुनें, इसलिए अब गोपियाँ बोलीं। गोप्य ऊचुः- मैवं विभोऽर्हति भवान् गदितुं नृशंसं सन्त्यज्य सर्वविषयांस्तव पादमूलम् । मैंव- संस्कृत भाषा की प्रणाली यह है कि एक पूर्वपक्ष होता है और एक उत्तर पक्ष; तो जो न मानने की बात होती है वह पूर्वपक्ष में कही जाती है और जब उत्तर पक्षी बोलने लगता है, खण्डन करता है, तो पहली बात उसके मुँह से नहीं निकलती है। मैंव- एव मा- ऐसा नहीं; जैसा तुमने कहा ऐसा नहीं। अरे नारायण। कृष्ण ने कहा, घर देखो, धर्म देखो, शरीर देखो, परिवार देखो, दुनिया देखो, भजन करो, कीर्तन करो, ध्यान करो, माला, फेरो, तस्वीर रखो घर में, ये सब बताया। गोपी के मुँह से पहले ही शब्द निकला- ‘मैवं’ ऐसी बात मत बोलो, तुम्हारी यह बात बिलकुल गलत है, सोलह आने! कैसे गलत है? विभो। विभो माने हे व्यापक। तुम हमारे दिल में बैठे हो। ये जो हमारी साँस चलती है इसको भी गिन लेते हो, हमारे मन में जो तुम्हारे लिए प्रेम के संकल्प उठते हैं उनको तुम देखते हो, तुम विभु हो। हमारे दिल में अगर तुम न होतो और ऐसी बात कहते तो हम समझते कि कोई ऐरा-गैरा, जो हृदेश्वर नहीं है, वह बोल रहा। परंतु तुम तो हमारे दिल में बैठे हो। हे विभो एवं मा- तुम जानते ही हो, ऐसी बात नहीं है। मैंवं विभोऽर्हति भगवान् गदितुं नृशसं- एक तो विभु होने के कारण तुमको ऐसा कहना अयोग्य है, क्योंकि तुम जानते हो; दूसरे तुम्हारे जैसा प्रेमी अगर ऐसा कहे तो यह तुम्हारे अयोग्य है। और तीसरी बात यह कि मीठी में से कड़वाहट कहाँ से निकली? नृशंसं। जीवनदान करने वाले में से यह वध का उद्योग कहाँ से निकला? जो जीवनदाता है वही हत्या करने वाले में से यह वध का उद्योग कहाँ से निकला? जो जीवनदाता है वही हत्या करने के लिए आवे, इसलिए यह निश्चय होता है कि यह बात तुम जो बोल रहे हो वह ऊपर-ऊपर से है, भीतर से नहीं है। ‘मैवं विभोऽर्हति भवान् गदितुं’ माने आपको ऐसा नहीं कहना चाहिए। यह कोई दूसरा बोल रहा है। ऐसा लगता है कि हमारा जो प्यारा कृष्ण है वह नहीं बोल रहा है। यह कोई वैकुण्ठ से आ गया होगा बाबा। यह कोई निर्गुणियों का, वेदान्तियों का ब्रह्म होगा, हमारा वह नन्दनन्दन, हमारा श्यामसुन्दर, हमारा पीताम्बरी, हमारा मुरलीमनोहर, हमारा गोपीजनवल्लभ, हमारा राधारमण, हमारा वृन्दावनविहारी, ऐसा नहीं बोल सकता। ‘मैवं विभोऽर्हति भवान् गदितुं नृशंसं’ यह वक्ता कोई और होगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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