विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीप्रेम में सूखी जा रहीं गोपियाँ आखिर बोलींकर्त्तव्य-विमूढ़ता में मौन था- ‘संरम्भगद्दगदगिरो’ जीभ लड़खड़ा रही है क्योंकि गुस्सा आ रहा है। बोले कि तब गुस्सा ही होगा? बोले- नहीं, ‘अनुरक्ताः’ रंग तो उन्हीं का है, अनुराग के रंग में रँगी हुई अनुरक्ता हैं ये। जैसे विरक्त शब्द है- इसके कई अर्थ होते हैं; जिसके शरीर में रक्त न हो, कम हो, उसका नाम विरक्त-विगत रक्त; और एक विशेष प्रकार का रक्त शरीर में आ जाय तो भी विरक्त होगा; जो दुनिया से अपने को ना जोड़ना चाहे माने संसार में जिसका किसी से राग न हो सो विरक्त, विगतरक्त; और ईश्वर से जिसका विशेष राग हो सो विरक्त; तो विशेष रक्तवाला, विगत रक्तवाला, विशेष रागवाला और विगत रागवाला ऐसे विरक्त होते हैं। ये गोपियाँ जो हैं वे श्रीकृष्ण के प्रति अनुरक्त हैं। अनुराग का रंग चढ़ा हुआ है- ‘एकहि रंग में रंगे ये दोऊ।’ अनुराग का रंग- यह अनुराग क्या होता है? इसमें बड़ी विशेषता है। देखो, प्रेम में दो ही बात बाधक हैं- एक तो विश्वास की कमी और एक अभिमान की वृद्धि। प्रेम में विश्वास बना रहता है कि वे हमसे बहुत प्रेम करते हैं, और उनके प्रेम के सामने तो हमारा प्रेम कुछ है ही नहीं। अपने प्रेम में कमी का अनुभव हो, और उनके प्रेम में अधिकता का अनुभव हो। अपने प्रेम की कमी देखकर अनुराग बढ़ता है। और उनके प्रेम की अधिकात का ख्याल करके अपना प्रेम बढ़ता है और यदि अनुभव होय कि उनका प्रेम कम, हमारा ज्यादा तो प्रेम और कम हो जाएगा। दूसरे अभिमान न हो, क्यों? अभिमान में दोष यह है कि अभिमन में अपनी नजर अपने ऊपर होती है, प्रियतम पर नहीं होती है। विश्वास में अपनी नजर अपने ऊपर नहीं होती है, प्रियतम के ऊपर होती है। एक राग है, एक अनुराग है। ईश्वर के हम आत्मज हैं। इसलिए ईश्वर का हमारे ऊपर राग होना स्वाभाविक है; उस राग के प्रति जो हमारा उनके प्रति राग है वह अनुराग है। जैसे एक यायी होता है, एक अनुयायी होता है; जैसे एक गमन होता है, एक अनुगमन होता है। वैसे ही जो ईश्वर का अखण्डराग हमारे ऊपर बरस रहा है, उसके प्रति हमारे हृदय का जो उन्मुक होना है, उसका नाम अनुराग है। गोपियों के मन में दोनों बाते हैं- संशय नहीं है। वे कहती हैं कि ऐसा नहीं है कि चूँकि ये निष्ठुर भाषण करते हैं इसलिए हमारे प्रति इनका प्रेम नहीं है। वे कहती हैं इनके हृदय में हमारे प्रति राग तो बहुत है, क्योंकि राग न होता तो रोज गोचारण से लौटते हुए देखते हुए क्यों जाते, हमारे लिए बाँसुरी क्यों बजाते, उलटकर हमारी ओर क्यों देखते, चीरहरण के समय हमारे साथ क्यों आते, हमसे छेड़छाड़ क्यों करते। फिर सकी, ऐसा बोलते क्यों हैं? तो बोलने में शायद सखी ये चाहते हों कि हम कलेजा चीरकर क्यों नहीं दिखातीं? तो चलो, जबान से अपना हृदय निकालकर उनको दिखा दें। अपना हृदय दिखाने का तरीका यही नहीं है कि छूरे से हृदय को चीर दिया जाय और फिर प्रियतम के सामने तश्तरी में रख दिया जाय कि देखो हमारा दिल ऐसा है। अपना दिल दिखाने का यह तरीका नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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