विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीगोपी के प्रेम की परीक्षा-धर्म का प्रलोभनबिन गुन, यौवन, रूप, धन, बिनु स्वारथ, हित जान। बोले- रूप देखकर प्रेम तो आँखों को स्वाद चाहिए, गुन देखकर प्रेम किया, तो मन को स्वाद चाहिए; जवानी देखकर प्रेम किया तो काम है; धन देखकर प्रेम किया, तो लोभ है; कहीं न कहीं स्वार्थ अटक जावेगा, और जब स्वार्थ अटकेगा तो शुद्ध प्रेम नहीं होगा। गुणरहितं, कामनारहितं- नारदजी ने बताया कि गुण देखकर प्रेम नहीं होता, कामना की पूर्ति के लिए प्रेम नहीं होता। प्रतिक्षणववर्धमानम्- घटता हुआ प्रेम नहीं होता। प्रेम में स्थूलता नहीं होती, प्रेम में द्रष्टा- दृष्यभाव भी नहीं होता, प्रेम अनुभवरूप होता है। तो आप देखो। ज्ञान के लिए जैसा शुद्ध ब्रह्म चाहिए- निर्गुण-निराकार, निर्विशेष, निर्द्वन्द्व- प्रेम के लिए भी प्रियतम वैसा ही चाहिए। प्रेम जिससे होता है उसमें प्रेमगुण की सृष्टि कर देता है। असल में ब्रह्म-ज्ञान में ब्रह्म में ज्ञेयत्व उत्पन्न होता है और उत्पन्न होकर ज्ञेयत्व बाधित हो जाता है। क्षणभर के लिए ज्ञेयत्व उत्पन्न हुआ, वृत्ति-ज्ञान हुआ और अगल क्षण ही मिटा। तो यह जो निर्गुण ब्रह्म की प्रणाली है वही प्रणाली प्रेम की है। प्रेमास्पद स्वरूप से निर्गुण ही है परंतु प्रेम उसमें क्षण-क्षण नये-नये गुणों की दृष्टि करता रहता है और आनन्द का हेतु बनता है-
प्रेम स्वारसिक है। अरे, यह लोहा जो है वह चुम्बक को खींचता है तो क्या स्वार्थ से खीचता है? और लोहा सोना बन जाएगा क्या इसलिए वह चुम्बक की ओर जाता है? लोहे का स्वभाव है कि वह चुम्बक की ओर खिंचता है। प्रेम का प्रारंभ प्रशंसा से भले होता हो, लेकिन प्रेम के परिपाक में तारीफ का होना जरूरी प्रारंभ प्रशंसा से भले होता हो, लेकिन प्रेम के परिपाक में तारीफ का होना जरूरी नहीं है। अपने प्रियतम की निन्दा सुनकर यदि प्रेम हट जाता है तो तुमने प्रियतम से प्रेम किया है कि उसके गुण से प्रेम किया है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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