विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीगोपी के प्रेम की परीक्षा-धर्म का प्रलोभनभगवान ने कहा- ठीक है। गोपियों, तुम्हें हमारे अन्दर भाव ही तो चाहिए ना। तो लो, हम भाव देते हं, भाव का साधन बताते हैं। क्या तुम्हारे गाँव में कोई कथा वार्ता सत्संग होता है कि नहीं? ये तो भगवान विनोद में बोल रहे हैं ना। वे चाहते हैं कि गोपियों के दिल में छिपा जो प्रेम है वह दुनिया के लिए जाहिर हो जाए। जो उस सत्संग में हमारे बारे में, हमारी लीला सुनो, हमारी कथा सुनो, हमारे गुण सुनो। गोपी बोलीं- हमने तुम्हारी लीला देखी है- माखन-चोरी करते हमने देखा है। अब सुनें क्या? तुम्हारी लीला तो हमलोगों ने अपनी आँखों से देखी है; और तुम्हारी सुन्दरता भी हम लोगों को मालूम है कि काले-काले हो; और तुम्हारे गुण भी हमने देखे हैं। हमारे कपड़े ही चुरा लिए- तो गुण भी बहुत देखे हैं। क्या यही सब सुनने के लिए हम गाँव जायँ? अरे बाबा! हमको तुम्हारे आन्दर कोई गुण, कोई लीला, कोई चीज अच्छी नहीं दिखती। हमको तुम्हारी कोई चीज अच्छी नहीं दिखती। हम तो अपने दिल से बेबस होकर आयी हैं, नहीं तो तुम हमको क्या खींच सकते? अरे तुम्हारे सब लक्षण हमको मालूम हैं, लेकिन फिर भी हमारा दिल नहीं मानता। देखो, प्रेम की एक यह भी रीति है। आपको इशारे में बताता हूँ। जैसे ये वेदान्ती लोग हैं ना, वे ब्रह्म को निर्गुण कहते हैं, और उसको जानने की कोशिश करते हैं। तो निर्गुण कहना और जानने की कोशिश करना। तो उसको कैसे जानोगे- या तो गुणाधिष्ठान के रूप में जानोगे और या गुणाभाव से उपलक्षित के रूप में जानोगे? गुणी के रूप में ब्रह्म को जानोगे क्या? तो जैसे ब्रह्म के ज्ञान के लिए ब्रह्म का गुण गुणीभाव में होना आवश्यक नहीं है वैसे ही जब प्रेम अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचेगा, तब उसमें प्रियतम में गुण-गुणीभाव का होना आवश्यक नहीं है। भगवान् बड़े दयालु हैं भाई-प्रेम करो। बड़े सुन्दर हैं- प्रेम करो तो जरा चाट लेंगे। कुछ न कुछ स्वार्थ होगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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