विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीगोपी के प्रेम की परीक्षा-धर्म का प्रलोभनजो सौन्दर्य से प्रेम करेगा, जो मीठी वाणी से प्रेम करेगा, जो सुगन्ध से प्रेम करेगा, उसका प्रेम एक दिन टूट जाएगा। कभी सुगंध की जगह शरीर में दुर्गन्ध निकले, कभी मीठी वाणी की जगह कड़वी वाणी निकले, कभी आँख प्रेमभरी होने की जगह कड़वी निकल आयी, तो कभी उदारता की जगह कंजूसी निकल आये, तो क्या प्रेम छूट जावेगा?-दोषेण क्षयतां गुणेन गुरुतां कामप्यनातन्वति- एष नित्यो महिमा ब्रह्मणस्य न कर्मणा वर्धतं..............। कर्म से ज्ञान बढ़ता नहीं, और कर्म से ज्ञान घटता नहीं। गुण से प्रेम बढ़ता नहीं और अवगुण से प्रेम घटता नहीं। प्रेम्नः स्वारसिकस्य प्रेम स्वरस है, आत्म-रस है, आत्मानन्द है। जैसे सूर्य प्रकाश फेंकता है, जैसे चंद्रमा चाँदनी फेंकता है, जैसे गुलाब के फूल में से सुगन्ध निकलती है, वैसे प्रेमी के हृदय में से प्रेम की वर्षा होती है, प्रेम की सुगंध निकलती है, प्रेम का रस निकलता है। प्रेमी के हृदय में से, प्रियतम के हृदय में से नहीं। प्रेमी के हृदय में से प्रेम का सौरभ, प्रेम का सौरस्य, प्रेम का सौन्दर्य, प्रेम का सौकुमार्य, प्रेम का सौहृद्य, प्रेमी के हृदय में से निकलता है और प्रियतम पर छा जाता है। प्रेमी के हृदय में प्रेमानन्द का प्रकाश होता है और वह संपूर्ण प्रपञ्च को अपने प्रकाश से घेर लेता है। तो नारायण, गुण देखकर, रूप देखकर, यौवन देखकर, अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए, प्रेम नहीं होता। प्रेम तो निर्गुण को सगुण बनाने की प्रक्रिया है। ठीक वैसे ही जैसे ज्ञान सगुण को निर्गुण बनाने की प्रक्रिया है। ज्ञान माने सगुण को निर्गुण बनाने की प्रक्रिया, और प्रेम माने निर्गुण को सगुण बनाने की प्रक्रिया। तो महाराज। वस्तुप्रधान ज्ञान होता है और कर्तृप्रधान प्रेम होता है। प्रेम करने वाले के हृदय में रहता है और निर्गुणता उसमें रहती है जिसका ज्ञान होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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