विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीजार-बुद्धि से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव हैप्रक्रिया काल में, वेदान्ती के समझ में यह बात नहीं आती। अच्छा बोले- हमारा तो जन्म होता है पर ब्रह्म का नहीं होता। बोले कि नहीं यही बात नहीं समझते हो कि ब्रह्म का ही जन्म हुआ है, हम ब्रह्म ही हैं और हमारा भी जन्म हुआ है। इसी का नाम लीला है। कृष्ण ब्रह्म ही है और कृष्ण का जन्म हुआ है- यह बात लीला की क्यों समझ नहीं पड़ती है? अपरिच्छिन्नता में परिच्छिन्नवत् जन्म लेना और अन्य क्रीड़ा करना लीला है। वह श्रीकृष्ण में जैसा है वैसा ही हममें हैं। सब ब्रह्म ही कर रहा है। जो ब्रह्म में है, मुझमें है और जो मुझमें है, ब्रह्म में है नारायण। भागवत् का यह सिद्धांत बड़ा विलक्षण है। वेदान्त का सार है। अच्छा अब आपको बताते हैं- परीक्षित का प्रश्न क्या हुआ? ये जो गोपियाँ हैं ये कृष्ण को समझती हैं परम कान्त। क्या छाँट के शब्द रखा है। कान्त माने प्यारा, कमनीय जिसके लिए प्यास लगे। कान्त शब्द का एक अर्थ होता है सुन्दर। कान्ति से कान्त बना- कान्ति अस्यास्ति इति कान्तः कान्ति इसमें रहती है इसलिए कान्त हैं, सुन्दर है और एक अर्थ बोलते हैं- ‘क’ माने सुख, उसका अंत माने पराकाष्ठा जिसमें हो, जिसमें सुख की पराकाष्ठा हो उसको बोलते हैं कान्त। और ‘क’ माने रस, जल, उसकी पराकाष्ठा माने अमृत। जैसे सुन्दर के दर्शन के लिए आँखें प्यासी रहती हैं वैसे जिस रस के लिए हमारा दिल प्यासा हो उसका नाम कान्त है। उसमें भी महाराज ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरे का नाम कान्त नहीं है। परं कान्तं- सबसे परे है यह कान्त। यह पर पुरुष है। पर भी तो लग गया इसमें। कल आपको सुना रहा था कि परपुरुष माने क्या होता है? इंद्रियों ने विषयों से व्याह कर लिया है, दिखाऊ ढंग से। परंतु असल में उनका प्रेम आत्मा से है। न वा अरे सर्वस्य कामाय सर्वं प्रियं भवति, |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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