विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीजो जैसेहि तैसेहि उठि धायीं-3मीलितलोचनाः मीलितानि, लोचनानि, बाह्य विषयक ज्ञानानि यासां ताः बाह्यविषयक ज्ञान का उन्होंने निमीलन कर दिया। निमीलन कर दिया, आँख नहीं बन्द की, घट-ज्ञान, मठ-ज्ञान सब छोड़ दिया। अब हुआ क्या? तो देखो उनकी दो स्थितियों का वर्णन करते हैं- दुःसहप्रेष्ठविरहतीव्रतापधुताऽशुभाः । चलते-चलते कोई गणपति का मंदिर पड़ा तो हाथ जोड़ लिया, ऊँ गं गणपतये नमः बोल लिया, तो समझ लिया, तो समझ लिया कि हम बड़े भारी भगत है। यह आस्तिकता तो है परंतु भक्ति नहीं है। देवता को नमस्कार करना, ब्राह्मण को, गाय को नमस्कार करना, यह हृदय में ईश्वर के प्रति आस्तिक बुद्धि है। हम जानते हैं कि तुम दाँये-बाँये हाथ जोड़ते हो। हमको याद है कि वैसे चाहे भगवान की याद न करें, लेकिन स्कूल जाते समय अगर रास्ते में कुत्ता मिल जाता था तो कहते थे कि हे हनुमान जी बचाना हमको ये कुत्ता भौंके न! और जब परीक्षा का दिन आता था तब तो गंगा स्नान करके, विश्वनाथ जी का दर्शन करके- उस दिन चंदन भी चढ़ाते, बेलपत्र भी चढ़ाते, फूलमाला भी चढ़ाते, -बोलते विश्वनाथ जी, परीक्षा में पास कर देना। इसका नाम भक्ति नहीं है, इसका नाम आस्तिकता है। भक्ति कब होत है कि जब भगवान के विरह में तो दुख हो, और भगवान के मिलन में सुख हो। बोले भगवान का विरह कहाँ से आवे? भगवान का मिलन कहाँ से आवे? तो हृदय में ही विरह और मिलन की स्फूर्ति होती है। हृदय में फुरे कि हाय-हाय---ऐसे जनम समूह सिराने । हृदय में विरह की स्फूर्ति हो कि युग-युग बीत गये, जन्म-जन्म बीत गये, और इस जिन्दगी का भी क्षण-क्षण छीज रहा है। स्त्री के लिए रोये, पुत्र के लिए रोये, पुरुष के लिए रोये, धन के लिए रोये, मकान के लिए रोये, इज्जत के लिए रोये, कुरसी के लिए रोये, भूखे होकर रोये, बीमार होकर रोये, लेकिन ईश्व के लिए चार बूँद आँसू नहीं गिरे कि हमको ईश्वर मिले, ईश्वर को मानने का नाम भक्ति नहीं है, भक्ति तब होगी जब हृदय में ईश्वर के प्रति स्फूर्ति होकर वेदना हो, अथवा मिलन की स्फूर्ति हो तो आँख खिल गयी, रोम-रोम खिल गया, हृदय खिल गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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