विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीजो जैसेहि तैसेहि उठि धायीं-3जिसके हृदय में भगवान के वियोग से दुःख नहीं होता और मिलन की वियोग स्फूर्ति से सुख नहीं होता, वह भक्त नहीं है। यह ज्ञान की बात नहीं है, इसको बोलते हैं कि भक्ति। भक्ति में हृदय द्रवित होना चाहिए भगवान के लिए। जब तक हृदय में भगवान के लिए द्रवता नहीं होती, हृदय पिघलता नहीं तब तक भक्ति नहीं है- रोमाश्चेन चमत्कृता तनुरियं भक्त्या मनोनन्दितं, कण्ठ गद्गद हो, आँखों में आँसू हो, शरीर में रोमाश्च हो और वाणी में, मन में हो- कृष्ण-कृष्ण-कृष्ण। यह है भक्ति का लक्षण। काश्चिद् गोप्यः- कोई एक गोपी थी जिसको रोक दिया था पति ने। यहाँ का+चिद् गोप्यः ऐसा करने से और चिद्-गोप्या माने चिद् वस्तु जो भगवान हैं उनका गोपन करने वाली अथवा उनको इंद्रयों से पान करने वाली, यह अर्थ बनेगा। उस बन्द गोपी ने अथवा उनको इन्द्रिय से पान करने वाली, यह अर्थ बनेगा। उस बन्द गोपी ने जब ध्यान किया तो? – दुःसह विरह का ताप उदय हुआ। यह श्लोक ईश्वर कृपा से जैसा विष्णु पुराण में वैसा ही भागवत में है। दोनों में एक सरीखा है माने शब्द में भेद है, अर्थ में भेद नहीं है। विष्णु पुराण में है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
प्रवचन संख्या | विषय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज