विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीजो जैसिह तैसेहि उठ धायीं-2चुम्बक अपनी जगह पर और उसने लोहे की खींच लिया; सोना जाकर कसौटी से मिल गया; यह है- कृष्णान्तिकं ययुः। अब यह कहो कि विघ्न ना पड़े, तो जो विघ्न से हार जाता है, वह भक्ति के, प्रेम के मार्ग में चलने योग्य नहीं, धर्म के मार्ग में चलने योग्य नहीं है। ये जो आजकल स्कूल और कालेजों में से पढ़कर निकलते हैं और अपने माँ-बाप को अहमक बोलते हैं वे भला क्या जाने कि भक्ति क्या होती है। उनसे कहो- ईश्वर का भजन करो, तो कहेंगे- भक्ति क्यों करें? कभी ईश्वर ने बनायी होगी सृष्टि। अब ईश्वर नहीं है। अरे, बाबा। ईश्वर है तो सर्वदा है नहीं तो हम लोगों का तो यह पक्ष है कि कदाचित् यह बात भी मान ली जाय कि ईश्वर नहीं है, तो भी भक्ति करने वाले का कल्याण होगा, हित होगा, मंगल होगा। यह पक्ष शास्त्र में है कि यदि कदाचित् ईश्वर न भी हो तो भी जो उसका ध्यान करेगा, उसका भजन करेगा, प्रेम करेगा, उसका कल्याण होगा। तो लौकिक नियम सा है- प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः- हम आपको अपने जीवन की कितनी बात बता सकते हैं कि पहले उसमें खूब विघ्न आया। एक बार हम कर्णवास से हरिद्वार के लिए चले पैदल; कोई दो सौ मील होगा। जो कर्णवास से निकले वर्षा शुरू हो गयी; सायंकाल और बादल आसमान में, और वह बिजली चमके, वह गर्जना हो; तीन मील चलते-चलते रात हो गयी। ऐसा लगे कि पहले ही ग्रास में मक्खी गिरी बड़ा विघ्न पड़ा। फिर एक रोशनी दिखाई पड़ी। नहर पारकर रात में बिलकुल रोशनी के सीथ में रास्ते से नहीं खेतों में भरा हुआ पान पार करके गाँव में 10 बजे, पहुँच गया; जाने पर उन लोगों ने आग जलायी और हमारे भीगे कपड़े सुखाये, दूध पिलाया, सो गये। लेकिन उसके बाद हरिद्वार तर कभी वर्षा नहीं आयी, बड़े आनन्द से यात्रा हुई। अब पहले दिन हम सोचते कि मक्खी गिर गयी, तो यात्रा कहाँ से होती। नारायण, विघ्न आने से जो अपना मार्ग छोड़ देते हैं उनके अंदर कोई जीवन नहीं है, भला। यह तो असल में विघ्नों से तपकर अपना साधन बनता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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