विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीजो जैसिह तैसेहि उठ धायीं-2हृदय में सोई हुई चीज का उल्लेख करें। कृष्ण कृषक हैं किसान हैं। एक सज्जन आये कृष्ण के पास, बोले- मैं बिलकुल निर्वासन हँ, श्रीकृष्ण। मुझे तत्त्वज्ञान हो गया है, मेरे मन में कोई वासना नहीं है। कृष्ण बोले- अच्छा; और थोड़ी देर में, महाराज, कहीं से घूम-फिरके साड़ी पहनकर, लड़की बनकर, सामने आ गये। अब उन निर्वासन जी महाराज के मन में जो वासनाएँ छिपी हुई थीं, उस लड़की को देखते ही प्रकट हो गई। अब निर्वासन जी तो पीछे-पीछे दौड़े। कृष्ण छिप गये; फिर घूम-फिरकर बालक बनकर बाँसुरी लेकर आ गये। बोले- कहो निर्वासनजी महाराज। यह क्या हुआ? अरे तुम हमसे प्रेम करो, देखो झूठ-मूठ के निर्वासन मत बनो। भक्ति जो है यह व्यक्ति की शक्ति है। अच्छा, एक बात आपको सुनाता हूँ। हम ईश्वर को चाहें कि ईश्वर हमको चाहे, दोनों में कैसे काम बनेगा? सचमुच अगर ईश्वर हमको चाहे तो तुम सह नहीं सकते बर्दाश्त नहीं कर सकते। अरे उसके न बाप, न माँ, न भाई, न बन्धुः वह अगर चाहे तो किसी को बुलावेगा नहीं, वह तो आकर तुम्हारे घर में बैठ जाएगा। तब कहोगे हाय-हाय, य तो बड़ी मुश्किल हुई, अब क्या करें? उसकी न तो जाति, न बिरादरी, न नर्क, न स्वर्ग, न पुनर्जन्म, न माँ, न बाप, न कोई रोकने वाला, ने वेद, न धर्म, परंतु अगर तुम चाहोगे तो तुम्हारे जीवन का निर्माण होगा; ईश्वर को चाहने से हृदय का निर्माण होता है। यह ब्रह्म जो है, परमार्थ वस्तु है; किसी को बनाता नहीं है, सबको प्रकाशित करता है, सबको आनन्द देता है, सबको सत्ता देता है, सबमें समान है। और यह जो भक्ति है, वह ब्रह्म की शक्ति नहीं है, यह प्रेमी की शक्ति है, इसी से जो विरोध मानते हैं कि वेदान्त में और भक्ति में विरोध है वे जानते नहीं कि श्रीरामानुजाचार्य जी महाराज जो विशिष्टाद्वैत का प्रतिपादन करते हैं उसमें जो अन्तर्यामी ईश्वर है, ब्रह्म है, वह कैसा है। जो समझते कि वेदान्त और भक्ति विरुद्ध हैं, उनको मालूम नहीं कि श्रीवल्लभाचार्य जी महाराज का विशुद्धाद्वैत क्या है और उनकी भक्ति क्या है। जो समझते हैं कि भक्ति और वेदान्त विरुद्ध हैं उनको भी नहीं मालूम कि निम्बार्काचार्याजी महाराज का द्वैताद्वैत और भक्ति क्या है? अरे द्वैताद्वैत, विशुद्धाद्वेत- वह तो वस्तु-तत्त्व है, मूल तत्त्व है, सिद्धांत है। वह तो सम्पूर्ण जगत् का अधिष्ठान है, आश्रय है, परस्पर-विरुद्ध-धर्माश्रय है, अविकृत उपादान है। और, नारायण। यह भक्ति जो है, वह मनुष्य के हृदय में पैदा होने वाली हमारी चीज है। जिसके दिल में भक्ति रहती है उसका निर्माण करती है। सादन का रहस्य ही यह है कि अगर अपने दिल को बनाना हो तो भगवान् की भक्ति करो, प्रेम करो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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