विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीजो जैसिह तैसेहि उठ धायीं-2मलिनमपि हिमांशोर्लक्ष्मी तनोति। चंद्रमा में जो कलंक है, जो काला दाग है, उससे क्या चंद्रमा की शोभा घटती है? इयमधिक मनोज्ञा वल्कलेनाऽपि तन्वी- यह सुन्दरी शकुन्तला वल्कल वस्त्र धारण किए हुए है तब भी अधिकाधिक सुन्दर लगती है। किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनां- जिनकी आकृति मधुर है, उनके लिए कौन सी ऐसी वस्तु नहीं है और कौन सी ऐसी वस्तु है, जो श्रृंगार नहीं बन जाती है आभूषण नहीं बन जाती है। सुन्दरें किं न सुन्दरम्- मधुराणां आकृतीनां किमिव वस्तु मण्डनम् न भवति। तो, प्रेम का आभूषण क्या? स्त्री का सबसे बड़ा चातुर्य क्या है? उसकी मुग्धता उसका भोलापन ही उसका चातुर्य है। वह बहस में किसी को जीत ले, दो थप्पड़ मारकर के हरा दे, अपने को बड़ी विद्यावती सिद्ध कर दे, साक्षात् सरस्वती अपने को सिद्ध कर दे, परंतु यह उसका सौन्दर्य नहीं है। स्त्री का सौन्दर्य है उसकी मुग्धता, उसका भोलापन, यही इसकी चातुरी है। स्त्री का सौन्दर्य क्या है? उसके हृदय में प्रेम होना। उसके प्रेम में सौन्दर्य है। कृष्ण-प्रेम में वस्त्र की जरूरत नहीं, उसमें आभूषण की जरूरत नहीं, श्रृंगार ठीक हुआ कि नहीं, इसकी जरूरत नहीं। जैसे ब्रह्मात्मैक्यदर्शन में देहात्मबुद्धि का त्याग होता है, वैसे भगवत्-प्रेम में वस्त्राभूषण का जो बाह्य सौन्दर्य है उस पर दृष्टि नहीं जाती। प्रेमी से मिलने के लिए जा रहे हैं, बस नदी की तरह बहे जा रहे हैं। उपनिषद् में आया है- जैसे नदी अभिसार करती है, सरकती, बहती-बहती समुद्र में जाकर मिलती है और अपना नाम और अपना रूप छोड़ देती है; इसी प्रकार प्रेम जब अपने प्रियतम की ओर बहता है तब हमारा नाम बना रहे, हमारा रूप बना रहे, हम भी कुछ बने रहें, यह ख्याल नहीं रहता है। ‘अहं’ की पूजा और प्रेम की पूजा- ये परस्पर विपरीत हैं। अहं की पूजा कभी हो सकती है, यदि वह प्रियतम का हो और उससे प्रियतम को प्रसन्नता होती हो, यह मालूम पड़े कि इस वस्त्राभूषण से वे प्रसन्न होंगे तो वही धारण कर लेंगे। जा वेषां म्हारा साँई रीझे सोई वेष धरों। जब चुम्बकने खींचा, तो लौह को कोई ख्याल नहीं रहा, कि नहन्नी हूँ कि मैं चाकू हूँ, कि मैं कैची हूँ। जब चुम्बन ने खींचा तब लौह अपनी शकल-सूरत भूल गया। कृष्ण जो हैं ये क्या है? कि श्याम-चुम्बक है। राधा रानी सोना हैं तो श्रीकृष्ण कसौटी हैं; गोपियाँ लोहा है तो कृष्ण चुम्बक हैं। कृष्ण माने कर्षक, जो अपनी ओर खींचे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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