विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीजो जैसिह तैसिह उठ धायीं-1आँखों को अंजन से बड़ी-बड़ी कर देना। आँखों के ऊपर जो पलकें हैं उन पर कालिख लगाते हैं, उसको आजकल क्या बोलते हैं उसको हम नहीं जानते हैं; एक डंडा खींच देती है, आँख से लेकर कान की तरफ को, जिससे आँख बड़ी लगे। अंजन से आँख ज्यादा काली लगती है। अंजन का मतलब होता है उभारना- लक्ष्मीजी और गंगाजी की बात आप लोगों ने सुनी होगी। जब ब्रह्माजी ने गाय बनायी, तो तैंतीस करोड़ देवताओं को निमंत्रण दिया गया कि तुम लोग आकर के गाय के शरीर में रहो। सो महाराज और सब देवता जल्दी पहुँच गये और गंगाजी और लक्ष्मीजी दोनों श्रृंगार करने के लिए पहुँच गयीं श्रृंगार-गृह में, सो बहुत देर से पहुँची। श्रृंगार ही घंटों लग गया। सब देवता आकर गाय के शरीर में बस गये। तब ये पहुँची। ब्रह्माजी ने कहा कि अब तुम्हारे लिए स्थान नहीं है, वापस चली जाओ। बोलीं- हम तो गाय में जरूर बसेंगी। ब्रह्माजी ने कहा- ठीक है, पर गंगाजी को तो अब गोमूत्र में रहना पड़ेगा और लक्ष्मीजी को गोबर में रहना पड़ेगा। बोलीं- अच्छा; मंजूर है। मूत्र में और गोबर में रहना पड़ा, सबसे पीछे क्यों बैठना पड़ा? कि वे श्रृंगार में फँस गयीं। तो बात यह हुई कि स्त्रियों को भोजन उतना प्यारा नहीं है जितना श्रृंगार। लेकिन जब श्रीकृष्ण को प्रेम की बाँसुरी बजी तो क्या हुआ कि इतना प्यारा जो श्रृंगार है वह भी छूट गया। ‘अञ्जन्त्यः काश्च’ गोपी को एक आँख में अंजन लगा था- एक तरफ लगा, एक ओर नहीं लगा; एक ओर लेप लगा दूसरी ओर नहीं लगा; शरीर में उबटन लगा ही हुआ था, धुला नहीं था। पर जैसे थीं वैसे ही चल पड़ीं। बाद में तो सब योगमाया ने सम्हाला। ‘व्यत्यस्तवत्राभरणा काश्चिद् कृष्णान्तिकं ययुः’ कपड़े उलट गये, नीचे का ऊपर, ऊपर का नीचे, उलटे-सीधे का ख्याल नहीं रहा। आभूषण हाथ का पाँव में, पाँव का हाथ में- आभरण उलट गये। एक ही कान में कुण्डल पहन पायी थी। जो नाक का आभूषण था वह कान में, जो ख्याल था कि हम अपने प्यारे कृष्ण के पास पहुँचे। सब श्रृंगार भूल गयीं। स्त्री के लिए श्रृंगार का बिसर जाना और खास करके अपने प्रियतम के पास जाने के समय, यह वंशी-ध्वनि का जादू है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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