विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीजो जैसिह तैसिह उठ धायीं-1नारायण। एक दूसरी गोपी स्नेहवश बच्चे को दूध पिला रही थी। बड़ा स्नेह, बच्चा रोता था ‘पाययन्त्यः शिशून् पयः’ दूध पिला रही थी। एक बार कई महात्मा जुड़े तो यह चर्चा हुई कि गोपियों में क्या बच्चेवाली भी थी? साहित्यिक लोग जहाँ लौकिक श्रृंगाररस का वर्णन करते हैं वहाँ अगर बच्चेवाली स्त्री के श्रृंगार रस का वर्णन हो गया तो उसको रसाभास मानते हैं। वहाँ सच्चे श्रृंगार-रस का उदय नहीं होता। इसका समाधान एक महात्मा ने क्या किया ये गोपियाँ दूध पिला रही थीं बच्चों को, यह बात तो सही है, लेकिन वे बच्चे उनके नहीं थे, जेठानी के थे, बड़ी बहन के थे, उनको दूध पिला रही थीं। दूसरे महात्मा ने कहा- नहीं भाई। यह कोई साहित्य दर्पण का या काव्य प्रकाश का या रस गंगाधर का, या मम्मटकार क्षेमेन्द्र का रस नहीं है, यह भगवद-रस है। भगवद रस की अधिकारिणी कुमारी भी है, विवाहिता भी है, बच्चेवाली भी है, सधवा भी है, विधवा भी है वृद्धा भी है। भगवद रस केवल शारीरिक होता, माने भगवान् भी यही देखते कि कौन बुढ़िया कौन जवान, तो उनकी दृष्टि शारीरिक हो जाती। यहाँ तो प्रेम का प्रसंग है, शरीर का प्रसंग नहीं है। इसलिए जिनके बच्चा थे वे भी पाययन्त्यः शिशून् पयः। बच्चे के प्रति हृदय में जो स्नेह था जिसके साथ वह बच्चे को दूध पिला रही थी उसको भी छोड़कर वंशी श्रवण के साथ ही श्रीकृष्ण की तरफ चल पड़ी। देखो, इसमें कितना आश्वासन है कि लोग कहीं इस भ्रम में न पड़ जाएँ कि भगवान् से प्रेम केवल जवान ही करते हैं, वृद्धा नही करतीं। अरे। वहाँ तो व्रज में महाराज! श्रीकृष्ण गोचारण करके निकलते थे तब आगे-आगे गौयें आती थीं और पीछे-पीछे श्रीकृष्ण और बलराम तथा उनके पीछे-ग्वाल बालों की मण्डली। गायों के खुर से उड़-उड़कर धूल पड़ी हुई उनके तन पर, तो उनकी उस शोभा को देखने के लिए रास्ते में सास की तो बात ही क्या, ददिया सास भी घोंटू तर काजल लगाकर और लठिया लेकर हाथ में और दरवाजे पर आकर खड़ी हो जाती थीं और मुस्करा-मुस्कराकर कृष्ण को देखतीं थीं। उनको देखकर कृष्ण भी हँसते, उनको भी हँसी आ जाती थी। हास्य रस भी तो एक रस है न, उसके द्वारा भी तो भगवान् की आराधान होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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