योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 148

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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पैंतीसवाँ अध्याय
कृष्ण महाराज की शिक्षा


हमारा यह कर्त्तव्य होना चाहिए कि ईश्वर के उस दरबार में जाने के लिए धर्म के निकटवर्ती लोगों से सहायता पाने की प्रार्थना करें और उचित मार्ग से उनकी प्रसन्नता प्राप्त कर उनके पूरे कृपापात्र बनें।

धर्म हेतु धर्म करना प्रत्येक जीवात्मा का लक्ष्य है। इस तथ्य को प्राप्त करने के लिए बहुत-से पड़ावों को पार करना पड़ता है। इन पड़ावों में से किसी एक पड़ाव को अपने जीवन का उद्देश्य बनाना ही प्रत्येक पुरुष का कर्त्तव्य है। इस कर्त्तव्य को जिसने समझ लिया, वह सीधे रास्ते पर पड़ गया। फिर उसको उचित है कि वह अपनी प्रकृति का सारा जोर इस पड़ाव को पार करने में खर्च करे और किसी दूसरे विचार को अपने रास्ते में बाधक न होने दे।

यूरोप का एक राजनीतिक महापुरुष लिखता है कि निष्फलता, हतोत्साह और निराशा तथा इसी तरह की दूसरी आपत्तियों ने एक समय मुझे इतना घबरा दिया जिससे मेरे मन में यह संदेह पैदा हो गया कि मैं गलती पर हूँ और मैंने सहज, स्वेच्छा व स्वबुद्धि ही से कार्य आरम्भ किया। जिसके परिणामस्वरूप मैं सैकड़ों जीवों के रक्तपात का अपराधी बना। अस्तु, इस विचार ने मुझे ऐसा घेरा कि मैं विक्षिप्तों की भाँति काम करने लगा। मेरा जीवन भार हो गया और मैंने कई बार आत्महत्या करने की इच्छा की। रातें बेचैनी में बीतने लगीं। किन्तु एक दिन प्रातःकाल सूर्य की रोशनी के साथ ही ज्ञान की प्रभा भी दृष्टिगोचर हुई। सोचते-सोचते मैंने यह निश्चय किया कि मैंने जो काम आरंभ किया है वह तो आत्श्लाघा या स्वार्थबुद्धि का परिणाम नहीं है, परन्तु यह दशा जो मैंने अपने लिए मान रखी है, यह मेरी बुद्धि का ही परिणाम है। अन्यथा मुझे क्या अधिकार है कि मैं कर्त्तव्य-पालन में केवल हतोत्साह और निराशा के सामने आने के कारण से यह निष्कर्ष निकालूँ कि मैं गलती पर हूँ। अस्तु, मैंने अपनी परीक्षा लेना आरम्भ की और सोचने लगा कि मैंने मनुष्य-जीवन को क्या समझा है? समस्त ज्ञान-विज्ञान इसी पर निर्भर है कि मनुष्य-जीवन का उद्देश्य क्या है?

भारतवर्ष के प्राचीन धर्म के ध्यान को ही जीवन का उद्देश्य माना है, जिसका फल यह हुआ कि हिन्दू मात्र इतने सोये कि फिर किसी काम के योग्य ही न रहे और आर्य संतान अपने ईश्वर में लीन हो गई।

दूसरी तरफ ईसाई मत ने जिन्दगी को बोझ समझा और यह निश्चय किया कि दुनिया के सब दुःख और चिन्ताओं को संतोष तथा प्रसन्नता से सहन करना चाहिए तथा उनसे बचने का उद्योग नहीं करना चाहिए। उन्होंने इस विचार से दुनिया को दुःख-मंदिर माना है। इनके नियम के अनुसार मुक्ति इसी से मिल सकती है कि हम दुनिया की सब चीजों को तुच्छ दृष्टि से देखें और उनकी कुछ परवाह न करें।

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योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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