योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
पैंतीसवाँ अध्याय
कृष्ण महाराज की शिक्षा
सिद्धान्त और सच्चाई के लिए बलिदान करने का विचार इतना कमज़ोर हो गया कि लोग थोड़ी-सी तकलीफ या थोड़ी-सी निष्फलता से अपने सिद्धान्तों को पैरों में कुचल डालते हैं और अपनी इच्छा को बदलकर उस काम को छोड़ देते हैं जिसको उन्होंने किसी उद्देश्य के पालन के लिए आरम्भ किया था। मैंने सोचा कि यद्यपि मुझको जिन्दगी के इस दर्शन से नफरत है और मेरा दिल उन विचारों पर आरुढ़ नहीं है, तब भी मेरी आत्मा इन्हीं ख्यालों की शिकार हो रही है। मैं जिन्दगी के उद्देश्य को अपनी जिन्दगी के आराम व कष्ट से, सिद्धि व असिद्धि से, लोगों की प्रीति व अप्रीति तथा योग और वियोग के विचारों से ही जाँचता हूँ। दुःख है कि अपने ही कर्म से मैं अपने इस विश्वास को जवाब दे बैठा कि नर-देह तो क्षणिक है और भिन्न-भिन्न जीवन में इस प्रकार उन्नति करता है जैसे कोई आदमी इस विश्वास से एक बहुत ऊँचे पहाड़ पर चढ़ता जावे मानो वहाँ ईश्वर बैठा है और वहाँ पहुँचने पर उसके दर्शन मिलेंगे। आत्मा के भिन्न-भिन्न जीवन तो वास्तव में एक ही लड़ी के दाने हैं जिनसे आत्मा शनैः-शनैः प्रकाश पाता हुआ उन्नति करता है। प्रत्येक जीवन का एक-न-एक लक्ष्य होता है अन्यथा जीवन का अर्थ ही क्या होगा? इसके अतिरिक्त जो लोग जीवन शब्द का दूसरा अर्थ लगाते हैं वे अपने ठीक रास्ते से भूले हुए हैं। वह जीवन ही क्या जिसका कोई लक्ष्य या उद्देश्य न हो। अतएव जिन्दगी का एक मुख्य उद्देश्य नियत करके फिर वह लिखता है कि इस प्रधान लक्ष्य के अन्तर्गत प्रत्येक जीवन की कोई वासना होती है जो इसकी विशेष अवस्था पर निर्भर होती है परन्तु जिसका स्वभाव भी उसी लक्ष्य की प्राप्ति है, जो प्रत्येक जीवात्मा का अंतिम लक्ष्य है। कुछ मनुष्यों के जीवन का अभिप्राय यह होगा कि वह अपने इर्द-गिर्द के लोगों के आचार और व्यवहार को सुधारें अर्थात अपनी जाति की शिक्षा को सुधारें। जो लोग इनसे भी अधिक उन्नतिशील हैं वे अपनी जाति में जातीयता के विचार को फैलाने की चेष्टा करें या धार्मिक और राजनीतिक उन्नति का बीड़ा उठावें। येन केन प्रकारेण यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि जीवन एक मिशन है और कर्त्तव्य या उसका धर्म उसके लिए अच्छे से अच्छा नियम है। प्रत्येक पुरुष की उन्नति इस पर निर्भर है कि वह अपनी जिन्दगी के मिशन को समझकर उसके अनुसार ही अपना कर्त्तव्य-पालन करे, क्योंकि इसी कर्त्तव्य को पालन करने या न करने पर यह बात भी निर्भर होगी कि इस जीवन के अन्त होने पर फिर उसको किस प्रकार का जीवन मिलेगा। प्रत्येक पुरुष को स्वयं यह अधिकार है कि वह अपने कर्मो द्वारा अपने भाग्य का निर्णय करे। |
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