योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 150

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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पैंतीसवाँ अध्याय
कृष्ण महाराज की शिक्षा


हममें से प्रत्येक पुरुष का यही कर्त्तव्य है कि अपनी आत्मा को साफ और पवित्र बनाकर उसी को अपना ध्यान-मंदिर बनावे। स्वार्थ से उसे पृथक कर बहुत गम्भीर विचार से अपने जीवन का उद्देश्य नियत करे और अपनी अवस्था के अनुभव से यह भी निश्चय करे कि उसके देश या उसकी जाति में किस बात की विशेष आवश्यकता को वह अपनी अवस्था या योग्यता के अनुसार किस तरह और किस कदर पूरा कर सकता है। इस तरह से अपने उद्देश्य को लक्ष्य करके फिर उसको पूर्ण करने में लग जावे और फिर जन्म-भर उस काम से न हटे, चाहे उसको दुःख हो या सुख, कामयाबी या नाकामयाबी, उसको दूसरों से मदद मिले या न मिले।

यदि इस यूरोपियन महापुरुष के हाथ में गीता होती तो न तो वह आर्यों के धर्म के विषय में गलत विचार बनाता और खुद उसको जीवन के सदाचार को, दर्शन को नियत करने में इतनी दिक्कत न होती जितनी कि हुई। उसकी पैदाइश में हजारों वर्ष पहले एक आर्य महापुरुष ने यही शिक्षा दी थी जिसका प्रकाश उस पर हुआ। उसके लिए तो यह प्रकाश अचानक और बेजोड़ था, परन्तु प्राचीन आर्य साहित्य में यह शिक्षा एक श्रृंखला की कड़ी मात्र थी और यही वैदिक धर्म का बुनियादी पत्थर है। यही महापुरुष अपने इस लेख में एक यूरोपियन कविता का हवाला देता है, जिसका अर्थ यह है:

"फौलाद हमारी आँखों के सामने डरावनी सूरत में चमकता है और रास्ते में कदम-कदम पर आपत्ति हमारी बाट देखती है, मगर तो भी लॉर्ड कहता है, बढ़े चलो! बढ़े चलो! दम न लो। हम पूछते हैं कि हुजूर यह तो बतावें कि हम किधर जा रहे हैं? जवाब मिलता है कि- अय लोगों, मरना तो है ही फिर डरना क्या आगे बढ़ो और मरो। अय लोगों, जहमत तो उठाना ही है फिर डरना क्या आगे बढ़ो और जहमत उठाओ।"

पाठको, आपने भगवद्गीता को पढ़ा या सुना, आपने महाभारत को देखा या पढ़ा, क्या यही उपदेश महाराज कृष्ण का नहीं है कि हे अर्जुन, तुम याद रखो, शरीरधारी मनुष्य मात्र को मरना तो अवश्य ही है, फिर मरने और मारने से क्या डरना। उठो और युद्ध करो, न मरने से डरो और न मारने से, जो तुम्हारा धर्म है उसका पालन करो।

सच तो यह है कि सच्चा धार्मिक वही पुरुष हो सकता है जो इस तरह अपने धर्म के लिए न मरने से डरे और न मारने से। जिसकी नजरों में इस धर्म के सामने दुनियादारी की सब बातें तुच्छ हैं।

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योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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