योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
पैंतीसवाँ अध्याय
कृष्ण महाराज की शिक्षा
यदि इस यूरोपियन महापुरुष के हाथ में गीता होती तो न तो वह आर्यों के धर्म के विषय में गलत विचार बनाता और खुद उसको जीवन के सदाचार को, दर्शन को नियत करने में इतनी दिक्कत न होती जितनी कि हुई। उसकी पैदाइश में हजारों वर्ष पहले एक आर्य महापुरुष ने यही शिक्षा दी थी जिसका प्रकाश उस पर हुआ। उसके लिए तो यह प्रकाश अचानक और बेजोड़ था, परन्तु प्राचीन आर्य साहित्य में यह शिक्षा एक श्रृंखला की कड़ी मात्र थी और यही वैदिक धर्म का बुनियादी पत्थर है। यही महापुरुष अपने इस लेख में एक यूरोपियन कविता का हवाला देता है, जिसका अर्थ यह है: "फौलाद हमारी आँखों के सामने डरावनी सूरत में चमकता है और रास्ते में कदम-कदम पर आपत्ति हमारी बाट देखती है, मगर तो भी लॉर्ड कहता है, बढ़े चलो! बढ़े चलो! दम न लो। हम पूछते हैं कि हुजूर यह तो बतावें कि हम किधर जा रहे हैं? जवाब मिलता है कि- अय लोगों, मरना तो है ही फिर डरना क्या आगे बढ़ो और मरो। अय लोगों, जहमत तो उठाना ही है फिर डरना क्या आगे बढ़ो और जहमत उठाओ।" पाठको, आपने भगवद्गीता को पढ़ा या सुना, आपने महाभारत को देखा या पढ़ा, क्या यही उपदेश महाराज कृष्ण का नहीं है कि हे अर्जुन, तुम याद रखो, शरीरधारी मनुष्य मात्र को मरना तो अवश्य ही है, फिर मरने और मारने से क्या डरना। उठो और युद्ध करो, न मरने से डरो और न मारने से, जो तुम्हारा धर्म है उसका पालन करो। सच तो यह है कि सच्चा धार्मिक वही पुरुष हो सकता है जो इस तरह अपने धर्म के लिए न मरने से डरे और न मारने से। जिसकी नजरों में इस धर्म के सामने दुनियादारी की सब बातें तुच्छ हैं। |
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