योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
पैंतीसवाँ अध्याय
कृष्ण महाराज की शिक्षा
कृष्ण महाराज की आज्ञानुसार जो खाता है तो इसलिए कि उसकी आज्ञा है, पीता है तो इसलिए कि उसकी आज्ञा है, दान देता है तो इसलिए कि उसकी इच्छा है, यज्ञ करता है तो इसलिए कि इसमें उसकी प्रसन्नता है। ऐसा ही पुरुष धर्मपरायण हो सकता है और ऐसा पुरुष ही दूसरों को धर्मपरायण होने की शिक्षा दे सकता है। खेद है कि इस देश में न अब धर्म है और न कोई धर्म परायण है। इसी वास्ते यह अभागा देश और इस देश के रहने वाले तरह-तरह की आपत्तियों में फँसते हैं। प्रत्येक मनुष्य अपनी इच्छानुसार धर्म का मनमाना स्वरूप बना लेता है और उस अपनी बनाई हुई तस्वीर की पूजा से मुक्ति पाने की इच्छा करता है। केवल इतना ही नहीं करता, औरों को भी उस तस्वीर की तरफ खींचता है और यही पुकारता है कि मेरे कथन पर जो संदेह करे वह काफिर है। परन्तु यदि प्राचीन समय के धर्मपरायण लोगों की साक्षी देखें तो पता चलेगा कि धर्म वेदों से मिलता है। वेद इस समय बहुत कठिन हैं क्योंकि इनके अर्थो का द्वार बंद है और इस महान पवित्र विषय में बुद्धिहीन तथा संकीर्ण हृदय मनुष्य का प्रवेश ही नहीं है। हम लोग तो उस महान द्वार की कुण्डी भी नहीं खोल सकते, फिर इसमें बैठकर उसका रसास्वादन बहुत दूर है। प्रश्न- तो क्या हमारा रोग असाध्य है और इसकी कोई औषधि ही नहीं? उत्तर- इसके अतिरिक्त और कोई औषधि नहीं कि हम धर्म के तत्त्वों की खोज करें जो धर्म के पार्श्ववर्ती हैं। प्रश्न- वह क्या हैं? उत्तर- देखो भगवद्गीता अध्याय 16 के श्लोक 1, 2, 3, (1) अभय[1] (2) मन की शुद्धि (3) बुद्धि योग में स्थिरता (4) दान (5) दम[2] (6) यज्ञ[3] (7) स्वाध्याय[4] (8) तप (9) अहिंसा[5] (10) सत्य (11) क्रोध का दमन (12) त्याग (13) शांति (14) वीरता (15) दृढ़ता (16) क्षमा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सिवाय परमेश्वर के और किसी से न डरना।
- ↑ अपनी इन्द्रियों को वश में करना।
- ↑ धार्मिक कर्म
- ↑ शास्त्रों का पठन पाठन।
- ↑ धर्म के विरुद्ध किसी को हानि न पहुँचाना।
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