योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 147

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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पैंतीसवाँ अध्याय
कृष्ण महाराज की शिक्षा


धर्म अपने साम्राज्य में किसी को साझीदार नहीं बनाता और न अपने राज्य में किसी दूसरे को अपने बराबर का आसन देता है। तात्पर्य यह कि वह स्वयं सर्वशक्तिमान होना चाहता है। किसी का संग उसे किसी प्रकार स्वीकार नहीं और न उसको यह हक है कि उसके भक्त को उसकी आज्ञापालन में जरा भी सोच-संकोच हो। अस्तु, धार्मिक वही हो सकता है जो धर्म की आज्ञा पालने में न सिर की परवाह करे न पैर की, न तन की परवाह करे और न धन की।

कृष्ण महाराज की आज्ञानुसार जो खाता है तो इसलिए कि उसकी आज्ञा है, पीता है तो इसलिए कि उसकी आज्ञा है, दान देता है तो इसलिए कि उसकी इच्छा है, यज्ञ करता है तो इसलिए कि इसमें उसकी प्रसन्नता है। ऐसा ही पुरुष धर्मपरायण हो सकता है और ऐसा पुरुष ही दूसरों को धर्मपरायण होने की शिक्षा दे सकता है। खेद है कि इस देश में न अब धर्म है और न कोई धर्म परायण है। इसी वास्ते यह अभागा देश और इस देश के रहने वाले तरह-तरह की आपत्तियों में फँसते हैं। प्रत्येक मनुष्य अपनी इच्छानुसार धर्म का मनमाना स्वरूप बना लेता है और उस अपनी बनाई हुई तस्वीर की पूजा से मुक्ति पाने की इच्छा करता है। केवल इतना ही नहीं करता, औरों को भी उस तस्वीर की तरफ खींचता है और यही पुकारता है कि मेरे कथन पर जो संदेह करे वह काफिर है। परन्तु यदि प्राचीन समय के धर्मपरायण लोगों की साक्षी देखें तो पता चलेगा कि धर्म वेदों से मिलता है। वेद इस समय बहुत कठिन हैं क्योंकि इनके अर्थो का द्वार बंद है और इस महान पवित्र विषय में बुद्धिहीन तथा संकीर्ण हृदय मनुष्य का प्रवेश ही नहीं है। हम लोग तो उस महान द्वार की कुण्डी भी नहीं खोल सकते, फिर इसमें बैठकर उसका रसास्वादन बहुत दूर है।

प्रश्न- तो क्या हमारा रोग असाध्य है और इसकी कोई औषधि ही नहीं?

उत्तर- इसके अतिरिक्त और कोई औषधि नहीं कि हम धर्म के तत्त्वों की खोज करें जो धर्म के पार्श्ववर्ती हैं।

प्रश्न- वह क्या हैं?

उत्तर- देखो भगवद्गीता अध्याय 16 के श्लोक 1, 2, 3, (1) अभय[1] (2) मन की शुद्धि (3) बुद्धि योग में स्थिरता (4) दान (5) दम[2] (6) यज्ञ[3] (7) स्वाध्याय[4] (8) तप (9) अहिंसा[5] (10) सत्य (11) क्रोध का दमन (12) त्याग (13) शांति (14) वीरता (15) दृढ़ता (16) क्षमा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सिवाय परमेश्वर के और किसी से न डरना।
  2. अपनी इन्द्रियों को वश में करना।
  3. धार्मिक कर्म
  4. शास्त्रों का पठन पाठन।
  5. धर्म के विरुद्ध किसी को हानि न पहुँचाना।

संबंधित लेख

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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