गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 17‘रहसि संविदं’ अर्थात् एकान्त में किया गया मधुर संकेत। वस्तुतः भगवद-नुकम्पा, भगवदनुग्रहवशात् ही प्राणी भगवदुन्मुख होता है; भक्तों का मन अपनी ओर अत्यन्त उत्कण्ठापूर्वक आकृष्ट करने के लिए ही आप्तकाम, पूर्णकाम, परम निष्काम, आत्माराम, प्रभु भी लौकिक प्राणियों की तरह ही भक्त-सम्मिलन की इच्छा प्रकट करते हैं; जैसे कोई कामी पुरुष उत्कट कामना से किसी कामिनी के साथ उत्कट स्नेहमय वार्तालाप करता है, सम्मिलन हेतु प्रार्थना करता है इसी तरह सर्वेश्वर सर्वशक्तिमान् प्रभु भी स्वयं में भक्त की उत्कट प्रीति उद्बुद्ध करते हैं; यही ‘रहसि संविद’, प्रिया-प्रियमत के सम्मिलन के उद्बोधक ऐकांतिक संकेत हैं। ‘मयेमाः रंस्यथ क्षपाः’ कात्यायनी-व्रत के अनन्तर, यमुना-तट पर जब आपके श्रीचरणों का दर्शन हुआ उस समय आपने अत्यन्त स्नेहसिक्त होकर कहा था कि हे गोप-युवतियो! अमुक-अमुक दिव्य रात्रियों में तुम मेरे संग विहार कर सकोगी; ये पवित्र रात्रियाँ, जिनमें अनन्त-कोटि ब्राह्मी रात्रियाँ, एक-एक प्रहर चतुष्टयवती रात्रि से सन्निविष्ट होंगी। अमुक दिव्य काल में तुमको हमारा संस्पर्श प्राप्त होगा। इस प्रकार के जो ऐकान्तिक संकेत हैं, अथवा विभिन्न समय में रासेश्वरी, नित्य-निकुंजेश्वरी, राधा रानी से अनुग्रह हेतु की गई विभिन्न प्रार्थनाएँ हैं तथा अन्यान्य अन्तरंगारंग सखी-वृन्द से सम्मिलन हेतु उत्कट उत्कण्ठा की अभिव्यंजना है, वही ‘रहसि संविद’ है। इन एकांतिक संकेतों के स्मरण मात्र से ही रोमांच हो जाता है, हृदय प्रफुल्लित हो जाता है, अन्तःकरण द्रवीभूत हो जाता है; यह ‘रहिस संविदं’ ही प्रथम मोहन-मंत्र है। ‘हृच्छयोदयं।’ कुछ बातें ऐसी भी हैं जिनको दार्शनिक दृष्टिकोण से ही सम्यक्भावेन समझा जा सकता है। आप्तकाम, पूर्णकाम, परमनिष्काम, आत्मा-राम भगवान् भी भक्ति रूप भोजन के बुभुक्ष होते हैं। करमा बाई की खिचड़ी की कथा इसका सटीक उदाहरण है। |