गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 17मरण-काल में प्राप्त मूर्च्छा ही मोह है। ब्रह्मसूत्र का वाक्य है ‘मुग्धे अर्द्धसम्पत्तिः।’ मुग्धता में मरण होता है; अतः मोह अथवा मूर्च्छा दसवीं दशा का सन्निधान है। तात्पर्य कि आपके मोह में ही हमारा अन्त भी हो जाएगा, आपके स्वरूप से वैराग्य की कल्पना भी नहीं हो सकती। वस्तुतः भक्त भगवान् के गुण–दोष का विचार ही नहीं करता; गुण-दोष-विचारयुक्त प्रीति अपूर्ण है। गोपांगनाओं का तो स्वाभाविक उद्घोष हैः- ‘असुन्दरः सुन्दरशेखरो वा, गुणैर्विहीनो गुणिनां वरो वा। अर्थात् श्यामसुन्दर, व्रजेन्द्रनन्दन, मदनमोहन भले ही असुन्दर हो अथवा सुन्दर-शिरोमणि हों, सम्पूर्ण गुणगणों से रहित हों अथवा सर्वगुणसंयुक्त हों; भले ही वे मुझसे द्वेष करें अथवा मुझ पर करूणाम्बुधि, परकृपालु होे, विशेष अनुग्रहकारक हों, तथापि हमारे तो ध्येय-ज्ञेय-सर्वस्व वे ही हैं। एतावता, हे प्रिय! आपसे विमुख होने की कल्पना भी नहीं हो सकती। उनका एक और उद्घोष है- ‘माधवो यदि निहन्ति हन्यतां बान्धवो यदि जहाति हीयताम्। अर्थात् यदि माधव हनन भी करना चाहते हों तो अवश्य ही वे हमारा संहार कर अपनी इच्छा पूर्ति कर लें; माधव के प्रति प्रेम के कारण यदि बंधु-बांधव भी हमारा त्याग करना चाहते हों तो वे कल के बदले आज ही हमें त्याग दें हमारे इस भाव पर साधुजन हँसते हों तो भले ही हँस लें; हमने तो माधव, मदनमोहन, श्यामसुन्दर को सर्वताभावेन स्वीकार कर लिया है, अब तो जो भी होना हो सो होता रहे। हे प्रिय! आपके मंगलमय श्री अंग में पाँच मोहन-मंत्र व्याप्त हैं। एक मोहन-मंत्र के प्रयोग से ही प्राणी विवश हो जाता है; जिस पर पाँच-पाँच मोहन-मंत्रों का प्रयोग किया गया हो उसकी कथा तो अकथ ही है। ‘रहसि संविदं हृच्छयोदयं’ आपका प्रत्येक वाक्य, प्रत्येक शब्द हमारे मन, अन्तःकरण, अन्तरात्मा को मोहित करने वाला है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आनन्दवृंदावन चम्पू