गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 448

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 16

‘गति-विद् होने के कारण निस्सार संसार को त्यागकर परम सारसर्वस्व भगवान् सर्वेश्वर प्रभु की शरण ग्रहण करना स्वाभाविक है; बिना प्रभु-कृपा के वह ज्ञान भी निरर्थक हो जाता है। भगवान् राघवेन्द्र रामचन्द्र जी कह रहे हैं-

‘मभ्दक्तिविमुखानां हि शास्त्रगर्तेषु मुह्यताम्।
न ज्ञानं न मोक्षः स्यात्तेषां जन्मशतैरपि।।’[1]

अर्थात जो भगवत्-भक्ति-विमुख हैं, भगवत्-प्रीति-शून्य हैं उनके लिये शास्त्र भी गड्ढे ही हैं। इन शास्त्ररूप गड्ढों में वे मोहित हो निमग्न रहते हैं। ऐसे लोगों को सैंकडों-हजारों जन्मों में भी न ज्ञान ही होता है, न मोक्ष ही प्राप्त होता है। कहा भी है,

‘उपनिषदः परिपीता गीतापि हन्त मतिपथं नीता
तदपि न सा विधुवदना मानससदनाद् बहिर्याति।।‘[2]

आर्थात् उपनिषदों को घोट-घोटकर पी लिया, गीता को भी मति-पथ पर उतार लिया तदपि वह संसाररूपी चन्द्रमुखी क्षणभर के लिये भी हृदय से निकलती नहीं। तात्पर्य कि केवल गतिविद् हो जाने मात्र से ही कल्याण सम्भव नहीं; ज्ञान हो जाने पर भी विशष्ट भगवदनुग्रह की अपेक्षा होती है। अक्रूर जी कह रहे हैं-

‘सोऽहं वाड्घ्रयुपगतोऽस्म्यसतां दुरापं तच्चाप्यहं भवदनुग्रह ईश मन्ये।
पुंसो भवेद्यहिं संसरणापवर्गस्त्वय्यब्जनाभ सदुपासनया मतिः स्यात्।।’[3]

अर्थात् हे नाथ! हम आज आपके मंगलमय पादारिविन्दों की शरण आये हैं; हमारी यह शरणागति भी आपके अनुग्रह, आपकी मंगलमयी भास्वती अनुकम्पा का ही फल है; इसमें हमारा कोई पुरुषार्थ नहीं है। जब पुरुष के संसरण का, जननमरणाविच्छेदलक्ष्णा संसृति-परम्परा का अन्त होना है तब उसमें संतों के अनुग्रह से भगवान् के मंगलमय पादारविन्दों में प्रीत प्रादृर्भूत होती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अध्यात्मरामायण
  2. पण्डितराज जगन्नाथ 1/2/51
  3. श्री मद् भा० 10/40/28

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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