गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 16‘गति-विद् होने के कारण निस्सार संसार को त्यागकर परम सारसर्वस्व भगवान् सर्वेश्वर प्रभु की शरण ग्रहण करना स्वाभाविक है; बिना प्रभु-कृपा के वह ज्ञान भी निरर्थक हो जाता है। भगवान् राघवेन्द्र रामचन्द्र जी कह रहे हैं- ‘मभ्दक्तिविमुखानां हि शास्त्रगर्तेषु मुह्यताम्। अर्थात जो भगवत्-भक्ति-विमुख हैं, भगवत्-प्रीति-शून्य हैं उनके लिये शास्त्र भी गड्ढे ही हैं। इन शास्त्ररूप गड्ढों में वे मोहित हो निमग्न रहते हैं। ऐसे लोगों को सैंकडों-हजारों जन्मों में भी न ज्ञान ही होता है, न मोक्ष ही प्राप्त होता है। कहा भी है, ‘उपनिषदः परिपीता गीतापि हन्त मतिपथं नीता। आर्थात् उपनिषदों को घोट-घोटकर पी लिया, गीता को भी मति-पथ पर उतार लिया तदपि वह संसाररूपी चन्द्रमुखी क्षणभर के लिये भी हृदय से निकलती नहीं। तात्पर्य कि केवल गतिविद् हो जाने मात्र से ही कल्याण सम्भव नहीं; ज्ञान हो जाने पर भी विशष्ट भगवदनुग्रह की अपेक्षा होती है। अक्रूर जी कह रहे हैं- ‘सोऽहं वाड्घ्रयुपगतोऽस्म्यसतां दुरापं तच्चाप्यहं भवदनुग्रह ईश मन्ये। अर्थात् हे नाथ! हम आज आपके मंगलमय पादारिविन्दों की शरण आये हैं; हमारी यह शरणागति भी आपके अनुग्रह, आपकी मंगलमयी भास्वती अनुकम्पा का ही फल है; इसमें हमारा कोई पुरुषार्थ नहीं है। जब पुरुष के संसरण का, जननमरणाविच्छेदलक्ष्णा संसृति-परम्परा का अन्त होना है तब उसमें संतों के अनुग्रह से भगवान् के मंगलमय पादारविन्दों में प्रीत प्रादृर्भूत होती है। |