गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 16‘अनधीत्य द्विजो वेदान् अनुत्पाद्य तथा सुतान् अर्थात् हे राजन्! न वह किसी का किंकर है, न किसी का ऋणी। जो सर्वात्मन्, सर्वेश्वर, सर्वाधिष्ठान, स्वप्रकाश, परात्पर, परब्रह्म परमेश्वर को अपना आश्रयत्वेन, रक्षकत्वेन वरण-स्वीकरण कर लेता है, ऐसे व्यक्ति के लिए देवता भी बन्धन नहीं कर सकते। ‘तस्य ह न देवाश्च नाभूत्या ईशते’[3] अर्थात देवता भी उसकी अभूति में समर्थ नहीं होते। गोपांगनाएँ कह रही है। ‘अन्ति समीपे आगताः’ हे अच्युत! ज्ञान, कर्म, एवं उपासना की गति का जानकर ही उन सबका त्यागकर, अति लंघन कर हम आपके शरण आई हैं क्योंकि आप अच्युत हैं। संसार की सम्पूर्ण वस्तु क्षण-भंगुर है, नश्वर है; उनका सम्बनध आनित्य है; किन्तु आपका सम्बन्ध नित्य है क्योंकि आप अच्युत हैं। संसार की सम्पूर्ण वस्तु प्रच्युत है; जन्म-जन्मान्तर से उनके साथ अनेक प्रकार सम्बन्ध जोड़ते-तोड़ते, जनन-मरणाविच्छेलक्ष्णा संसृति में भटकते-भटकते संत्रस्त हो आप अप्रच्युत की शरण आई हैं। ‘तवोदगीतमोहिताः’ तुम्हारे उद्गीत से मोहित होकर ही तुम्हारी शरण आई हैं। ज्ञान से ही शरणागति सम्भव है। जो जानता ही नहीं वह क्योंकर शरणागत हो सकता है? आपकी अनुकम्पा बिना सम्पूर्ण ज्ञान भी निरर्थक हो जाता है। ‘पतिसुतान्वयभ्रातृबानधवान् गतिविदः’ जो संसार की निस्सारता और भगवत्-अप्रच्युतता को जानता है, जो ‘गतिविद्’ है वही आपकी शरण ग्रहण करेगा। क्योंकि ‘जानतीच्छति अथ करोति’ सर्वप्रथम ज्ञान का होना अनिवार्य है; ज्ञान होने पर ही इच्छा होती है, इच्छा होने पर ही कर्म होता है। |