गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 16शिष्यों ने तर्क किया, ‘महाराज के घर तो दो ही बहुएँ हैं; तीसरी कहाँ से आयी?’ इस सब वाद-विवाद को सुनकर उमापतिजी कहने लगे, ‘चुड़िहारिन ठीक ही कहती है; जनक-निन्दनी जानकी ही तीसरी बहू है, मन्दिर में जाकर देखो।’ सब लोग मन्दिर दौडे़; वे लोग आश्चर्यचकित रह गए यह देखकर कि भगवती जनक-नन्दिनी जानकी- विग्रह के हाथों में मनिहारिन की पहनाई हुई चूड़ियाँ हैं। इतने पर भी एक दिन विवाद हो गया कि उमापतिजी वास्तव में महर्षि वशिष्ठ के अवतार हैं अथवा नहीं; अतः इस विवाद-निर्णय-हेतु अनेकानेक माहत्मा एकत्र हुए; निश्चय हुआ कि उमापति जी का पादोदक मन्दिर में रख दिया जाय; यदि भगवान् राम इस पादोदक को स्वीकार कर लें तो उमापति जी महर्षि वशिष्ठ के अवतार माने जाएँ अन्यथा सब पाखण्ड हैं। एतावता उमापतिजी का पादोदक रखकर मन्दिर के पट बन्द कर दिये गए; कुछ देर बाद पट खोलने पर देखा गया कि पादोदक की कटोरी ख़ाली है और जल भगवत्-विग्रह के श्रीमुख पर लगा हुआ है। भाव के भूखे भगवान को अनन्यता से ही रिझाया जा सकता है, अनन्यता ही महत्त्वपूर्ण है। भक्त कहता है- अर्थात हे प्रभो, जैसे विरही समस्त संसार को प्रियामय देखता है, वैसे ही, मैं भी सम्पूर्ण संसार को भगवन्मय ही देखूँ। गोपांगनाएँ भगवान् श्यामसुन्दर श्रीकृष्णचन्द्र से कह रही हैं, ‘वयं गति-विदः’ ‘हम ज्ञान, कर्म एवं उपासना की गतियों को जानती हैं।’ गति अर्थात उनका महा-तात्पर्य; ज्ञान-कर्म एवं उपासना, सबका महा-तात्पर्य जिस तत्त्व में है उसको हम जानती हैं; मुमुक्षत्व और उत्कट विविदिषा ही सम्पूर्ण कर्मों का मुख्य फल हैं। गापांगनाएँ स्वयं श्रुतिरूपा हैं; श्रुतियों के द्वारा ही धर्म, ज्ञान एवं उपासना की गतियाँ सबके लिए विदित होती हैं; श्रुतियों के आधार पर ही आस्तिक धर्म की गति का तथा ज्ञान एवं उपासना के सिद्धान्तों का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। |