गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 16शास्त्रा-कथन हैः- प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न बुद्ध्यते। अर्थात, जिन विषयों को प्रत्यक्ष प्रमाण अथवा अनुमान प्रमाण से न नहीं जाना जा सकता उन सबकों भी वेदों द्वारा जानते है; यही वेदों की वेदना है। प्रत्यक्षा-नुमान प्रमाण द्वारा अनधिगत अर्थ की बोधकता ही वेद की वेदता है। श्रुतियों द्वारा ही विभिन्न कर्म-काण्ड का विधान होता है। अन्ततोगत्वा यही सिद्ध होता है कि भगवत्-प्राप्ति ही सम्पूर्ण कर्मों की अन्तिम गति है। ‘सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति।’[1] सम्पूर्ण वेदों का तात्पर्य भगवत्-पद-प्राप्ति ही है। सास-श्वशुर की सेवा, पति का परम सम्मान, करना, उसको ईश्वर समझना, बालक-बालिकाओं का लालन-पालन-पोषण-शिक्षण करना, कुटुम्ब का सम्यक् प्रबन्ध करना, पति के साथ अग्निहोत्र आदि धार्मिक क्रिया-कलापों में सम्मिलित होना आदि स्त्री-धर्म हैं।जैसे, पुरुष के धर्मं-कर्म का अन्तिम परम फल भगवत्-पद-प्राप्ति है, वैसे ही, स्त्री-धर्म का भी अन्तिम परम फल भगवत्-पद-प्राप्ति ही है। ‘कुर्वन्ति हि त्वयि रतिं कुशलाः स्वआत्मन्नित्यप्रिये पतिसुतादिभिरातिंदैः किम्।‘[2] ‘श्रीर्यत्पदाम्बुजरजश्चकमे तुलस्या अर्थात गोपंगनाएँ कह रही हैं, जो कुशल विद्वान, शास्त्र-तात्पर्य-शास्त्रज्ञ हैं वे आपमें ही रीति, प्रीति, अनुरिक्त करते हैं; ‘नित्यप्रिये स्व आत्मनि’ स्वात्मा हो नित्यप्रिय होता है। संसार की सम्पूर्ण वस्तु कभी प्रिय और कभी अप्रिय हो जाती है परन्तु स्वात्मा नित्यप्रिय है। आप ही नित्यप्रिय हैं। निरतिशय निरूपाधिक परम प्रेम के आस्पद हैं। |