गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 44

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 1

भगवान ने कहा, ‘हे सखी! तुम स्वयं ही खोल दो इन नूपुरों को।’ वह सखी ज्यों ही नूपुर खोलने को उद्यत हुई वैसे ही एक अन्य सखी वहाँ आ पहुँची और कहने लगी, ‘हे सखी! यह क्या अनर्थ कर रही हो? जिस किसी को भी एक बार भगवत्-चरणारविन्दों का आश्रय प्राप्त हो जाता है वह कदापि उनके विलग नहीं हो सकता। यदि तुम इन नूपुरों को हटा दोगी तो फिर यही परम्परा चल पड़ेगी। अतः हे सखी! इन नूपुरों को कदापि न खोलना।’ तात्पर्य कि एक बार भगवान् द्वारा स्वीकृत हो जाना ही भक्त का परम सौभाग्य है। गोस्वामी कहते हैं, ‘एक बार कहहुँ नाथ तुलसिदास मेरो।’ गोपांगनाएँ भी कह रही हैं-‘श्यामसुन्दर! ‘तावकास्त्वयि’ हम तो तुम्हारी ही हैं, साथ ही तुम्हारे द्वारा स्वीकृता भी हैं। ‘त्वदीयत्वाभिमानवत्यः वयं गोपीजनाः’ हमें अभिमान है कि हम आपकी हैं।” गोस्वामी तुलसीदस कहते हैं, ‘मैं सेवक, रघुपति पति मोरे, अस अभिमान जाय जनि भोरें।’ मैं भगवान् का हूँ यह भाव ही भगवदीयत्वाभिमान, त्वदीयत्वाभिमान है। एक सन्त थे; उनका कहना था कि लौकिक चक्रवर्ती नरेन्द्र का पुत्र होकर व्यक्ति गौरव का अनुभव करता है परन्तु अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड-नायक सर्वेश्वर सर्वशक्तिमान् के पुत्र होने का गौरव भुला देता है; वेदवाक्य है ‘अमृतस्य पुत्राः’[1] अमृत अर्थात् अनन्त-ब्रह्माण्ड-नायक, परमात्मा, सवेश्वर, सर्वशक्तिमान्; 'अमृतस्य पुत्र, अर्थात भगवान का पुत्र। वस्तुतः गौरव तो प्रभु का पुत्र होने में ही है।

श्रीमद्भागवत में ही ‘वेणुगीत’ के प्रसंग में कहा गया है,

“गोप्यः किमाचरदयं कुशलं स्म वेणुर्दामोदराधरसुधामपि गोपिकानाम्।
भुङ्क्ते स्वयं यदवशिष्टरसं ह्रदिन्यो हृष्यत्वचोऽश्रु मुमुचुस्तरवो यथार्याः।।”[2]

गोपांगनाओं को यह जानकर कि दामोदर की अधर-सुधा पर हमारा ही अधिकार है विशेष दर्प हो गया; इस अभिमान के कारण ही भगवान् श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गए; इस परित्याग के कारण उनके दर्प का उदमन हो गया। अतः अब वे कह रही हैं, हे दयित! ‘तावकाः वयं’ हम आपकी हैं, त्वदीयत्वाभिमानिनी हैं, एतावता स्वभावतः ही आपके विप्रयोगजन्य तीव्र ताप से संत्रस्त हैं। ‘दयित’ जैसे सम्बोधन द्वारा वे अपने प्रति भगवान् के हृदय में भास्वती भगवती अनुकम्पा शक्ति के आविर्भाव की स्पृहा प्रदर्शित करती हैं। वे अनुभव करती हैं कि मानो भगवान श्रीकृष्ण उनको उपालम्भ दे रहे हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ऋ. सं. 10। 13। 1
  2. भाग. 10। 21। 9

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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