गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 43

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 1

हे दयित! महोदधि के तीर पर रहने वाले पक्षीगण की तरह ही हम भी दिशा-विदिशाओं में आप ही को खोजती हुई इस अन्धकारमयी रात्रि में गहवनों में भटकती हुई गम्भीर विपज्जाल में फँस गयी हैं। हे प्रभो! क्या यह आपके लिये अशोभनीय नहीं है? ‘विषवृक्षोऽपि संवद्धर्य स्वयं च्छेत्तुमसाम्प्रतम्।’ विष-वृक्ष अरोपण करने पर उसका भी छेदन कोई नहीं करता। हे सखे! आपसे मिलन की हमारी इस आशा-कल्पलता को तो सवयं आप ही ने कात्यायनी-अर्चन के अनन्तर वरदान देकर सम्बलित किया। ‘इमाः क्षपा मया रंस्यथ’ इन क्षपाओं में, इन दिव्य ब्रह्म रात्रियों में तुम्हें हमारा संगम प्राप्त होगा, तुम ब्रह्म-संस्पर्श को प्राप्त करोगी, तुम्हें ब्राह्म-तादात्म्यप्राप्ति होगी; तुम्हें ब्रह्म-रति, परमात्म-रति, आत्मरतिपूर्ण रूप से प्राप्त होगी। इस प्रकार से वरदान देकर आपने ही हमारे हृदय की आशा-कल्पलता का अभिसिंचन एवं अभिवर्द्धन किया परन्तु अब अपने दर्शनों से भी वंचित कर आप स्वयं ही उस कल्पलता का छेदन कर रहे हैं। क्या यह न्यायसंगत अथवा उचित है? हे प्रभो! केवल आपके दर्शन की लालसा से ही हम अपने प्राणों को भी धारण कर पा रही हैं।

गोपांगनाजनों का सम्पूर्ण जीवन ही भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के प्रति तत्सुखसुखित्व-भाव प्रधान है। अपने प्रियतम्, प्राणधन, श्यामसुन्दर का सुख ही उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य है। उनके सम्पूर्ण असन, वसन एवं भूषण भी श्रीश्यामसुन्दर के ही मनोरंजनार्थ हैं। शेषावतार का भी यही सिद्धान्त है। भगवान् शेषों हैं, जीवमात्र शेष हैं; भगवान् सर्वांगी हैं, प्राणी-मात्र उनके अंग हैं, उपकर हैं। भगवान् को शेषी और अपने-आपको शेष जानते हुए भगवत्चरणों में पूर्ण समर्पित हो जाना ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।

गोपांगनाएँ कह रही हैं, ‘दिक्षु तावकाः त्वयि धृतासवः त्वां विचिन्वते’ हे दयित! भीषण कान्तार में आपको खोजती हुई, भटकने के कारण परिश्रान्तक्लान्त तथा आपके विप्रयोगजन्य तीव्र ताप से संत्रस्त, त्वदीयाभिमानिनी और तुमसे स्वीकृता ‘तावकाः’ हम व्रज वनिताएँ अत्यन्त दुःखित हो रही हैं। हे श्यामसुन्दर! आप प्रत्यक्ष होकर हमारी इस दारुण स्थिति का अनुभव करें। आपके प्राकट्य से ही हमारे दुःखों का अन्त हो जायगा। हे दयित! यदि आपको स्तावकत्व ही तुष्टिकर हो तो हम ‘तावकाः’ तुम्हारी होते हुए भी ‘स्तावकाः’ स्तुति करने वाली भी हो रही हैं। आपको स्तुति प्रिय है अतः हम आपकी प्रेयसीजन आपकी स्तुति करती हुई वन-वन में आपको खोजती हुई भटक रही हैं। भगवान जिसको एक बार स्वीकार कर लेते हैं उसकी उपेक्षा कदापि नहीं करते। एक कथा है-एक बार किसी गोपांगना ने कहा, ‘हे श्यामसुन्दर! तुम्हारे नूपुर बजते हैं जिसके कारण हमारे घर के लोग सास-ननान्दा आदि सतर्क हो जाती हैं अतः तुम इन नूपुरों को उतार दो।’

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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