गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 1अर्थात प्रभु ही गति, भर्ता, स्वामी, सुहृद्, साक्षी एवं आधार हैं। जीवात्मा और परमात्मा में विविध सम्बन्ध हैं। सूरदास कहते हैं, “जीव हौं तू ब्रह्म; दीन हौं तू दयालू। जीवात्मा एवं परमात्मा के बीच अनेकानेक सम्बन्धों में जो कोई भी मान्य हों अन्ततोगत्वा सबका लक्ष्य ‘तवाऽस्मि’ की सुदृढ़ अनुभूति ही हैं। नागोजी भट्ट कहते हैं ‘अभयं सर्वभूतेभ्यः तात्कालिकं च आत्यन्तिकं च।’ अर्थात् एक बार भगवत्-शरणागति, भगवत्-प्रपत्ति का भाव सुदृढ़ हो जाने पर भगवदीयत्वाभिमान जागरूक हो जाने पर सम्पूर्ण भयों से तात्कालिक एवं आत्यन्तिक निवृत्ति हो जाती है। जनन-मरणाविच्छेद-लक्षणा संसृति से निर्भीक हो जाना ही आत्यन्तिक निवृत्ति है। गोपांगनाएँ कह रही हैं, हे दयति! त्वदीयत्वाभिमान ही सर्वश्रेष्ठ, सर्वकल्याणकारी एवं सर्व प्रकार के भयों से तात्कालिक तथा आत्यन्तिक निवृत्ति का एकमात्र कारण है। तथापि हम आपकी परमानुरागिणी, परम प्रेयसी, त्वदीयत्वाभिमानिनी, ‘तावकाः’ व्रजवनिताएँ आपके विप्रयोगजन्य तीव्रताप से सन्तप्त हो इतस्ततः भटक रही हैं। ‘निषेव्य सरितां पत्युस्तटीं पक्षिगणश्चरन्। यत् पिबेत् सरसस्तोयं तद्धि लज्जा महोदधेः।’ अर्थात् महोदधि के तीर पर रहने वाले पक्षीगण को भी जल पीने के लिये किसी सरोवर के तीर पर ही जाना पड़ता है। अहो! समुद्र के लिये यह कैसी लज्जा की बात है? हे प्रभो! हम व्रजांगनाएँ भी आप अनन्त-ब्रह्माण्डनायक परात्पर, परब्रह्म, प्रभु की प्रेयसी सखियाँ होते हुए भी आपके मुखारविन्द के दर्शन से वंचित रहें, आपके पादारविन्द को नखमणि चन्द्रिका का दर्शन भी हमारे लिये अत्यन्त दुर्लभ हो जाय, आपके दामिनी-द्युति-विनिन्दक पीताम्बर का दर्शन भी सम्भव न हो, आपके सौन्दर्य-माधुर्य-सौरस्य-सौगन्ध्य-सुधा-जल-निधि स्वरूप के रसास्वादन से वंचित रहें यह कहाँ तक न्यायोचित है? |