गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 16‘जीवस्य तत्च-जिज्ञासा नार्थो यश्चेह कर्मभिः’[1] कर्मों का जो लौकिक प्रयोजन लोक में प्रसिद्ध है वह वस्तुतः कर्मों का मुख्य प्रयोजन नहीं है। तत्त्व-जिज्ञासा एवं अन्तःकरण शुद्धि ही कर्मों का परम प्रयोजन है। ‘धर्मस्य ह्यापवर्ग्यस्य नार्थोऽर्थायोपकल्पते’ सम्पूर्ण धर्म कर्म का अवान्तर तात्पर्य स्वर्गादि में होते हुए भी महातात्पर्य भगवत्-साक्षात्कार में ही है। धर्म का फल अर्थ एवं काम भी है तथापि वह गौण है; धर्म से अर्थ की प्राप्ति भी होती है, अर्थ का मुख्य फल दानादि परोपकारयुक्त कर्म एवं गौण फल लौकिक सुख-प्राप्ति भी है; अर्थ से काम की प्राप्ति होती है; काम का मुख्य फल जीवन, प्राण-धारण और गौण फल इन्द्रिय-प्रीति है। धर्म, अर्थ एवं काम तीनों का ही महातात्पर्य मोक्ष, भगवत्-साक्षात्कार है जैसे माता बालक को रोग-निवृत्ति की दृष्टि से नीम-गिलोय, मोदक के प्रलोभन से पिला देती है; बालक तो नीम-गिलोय पीने का फल मोदक-प्राप्ति ही समझता है। इसी तरह, भगवती श्रुति भी स्वर्गादि दिव्य परम फलों का प्रलोभन देकर, धर्म-कर्म में आकर्षित कर अन्ततोगत्वा भगवत्-साक्षात्कार करा देती है। धर्म ही मानव की विशेषता है। ‘आहार निद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।;’ धर्मो हि तेषामधिको विशेषः कुलधमं, जाति।। धर्म, वणधर्म, आश्रमधर्म, स्त्रीधर्म सबका अन्तिम परम फल भगवत्पद-प्राप्ति ही है। एतावता, ज्ञान, कर्म एवं उपासना की गतियों को जानती हुई हम आपके उद्गीत से मोहित होकर आ गई हैं। भगवदनुग्रहवशात् भगवदुन्मुखी प्रवृत्ति हो जाने पर भी अन्नयता अनिवार्यतः आवश्यक है। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि उस जीभ को ही काट डालो जो अपने इष्ट से अम्य किसी का गुण-वर्णन करें। इतनी अनन्यता रखते हुए भी गोस्वामी जी ने ‘गाइये गणपति जगवन्दन’ तथा ‘बावरो रावरी नाह भवानी’ आदि स्तुतियाँ की हैं; ‘मानस’ में भगवती जनक-नन्दिनी जानकी द्वारा ‘जय जय गिरिवरराज किसोरी। जय महेश मुखचन्द्र चकोरी।।5।। देवि पूजि पद कमल तुम्हारे, सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे।।2।। [3] आदि स्तुति की है। इनके कारण अनन्यता में विघ्न नहीं पड़ता, वे अपने सिद्धान्त से प्रच्युत नहीं होते क्योंकि वे जानते हैं कि वस्तुतः तत्त्व एक है। |