गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 437

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 16

भगवत्-तत्त्व-वेदन की उत्कट उत्कंठा, तीव्र विविदिषा उत्पन्न हो जाय, यही सम्पूर्ण जप-तप का फल है। भगवत्-तत्त्व-वेदन की उत्कट उत्कंठा ही परम पुरुषार्थ है। तत्त्व की विविदिषा उद्बुद्ध होने पर वेदन अवश्यम्भावी हो जाता है। भाष्यकार कहते हैं कि जैसे प्रदीप्त-शिरा प्राणी अत्यन्त व्याकुल ही निर्मल, शीतल सरोवर की ही आकांक्षा रखता है; संसार के विशिष्ट सुख भी उसको आकर्षित नहीं कर पाते, वैसे ही, प्रभु-चरणारविन्दों में तीव्र विविदिषा, उत्कट उत्कंठा उद्बुद्ध हो जाने पर संसार के सम्पूर्ण प्रलोभन भी आकर्षित नहीं कर सकते। अन्य मत यह भी है कि प्रकृति-प्रत्यय-न्याय से प्रत्यार्थ का ही प्राधान्य है तथापि कर्म भी इच्छारूप क्रिया के द्वारा ही आप्तुं इष्टतम है। ‘कर्तुरीप्सिततमं कर्म‘ जो कर्ता के लिए प्राप्यइष्ट हो वही कर्म है। ‘इच्छाविषयतया शब्दबोध्यएव शब्दसाधनतान्वयः।’ इच्छा-विषय तथा शब्द-बोध्य में ही सम्पूर्ण साधनों का अन्वय हेाता है; एतावता इच्छा का विषय ही भगवत्-वेदन हो जाये तो प्रकृति-प्रत्यय-न्याय से इच्छा द्वारा भी वेदन ही प्रधान हो जाता है; अतः वेदन के प्रति यज्ञ, तप,दान आदि का समन्वय होता है। ‘इष्यमाणे वेदने यज्ञादयः’ यज्ञादि साधन इष्यमाण वेदन के लिये ही होते हैं; तात्पर्य कि यज्ञ, तप, दानादि सम्पूर्ण अनुष्ठानों का फल इष्यमाण भगवत्-वेदन है। सम्पूर्ण धर्म-कर्म का उपयोग भगवत्-साक्षात्कार में ही है। ‘नैष्कम्र्यसिद्धिकार’ के वचन हैं,

‘प्रत्यक् प्रवणतां बुद्धेः कर्माण्युत्पाद्य शुद्धितः।
कृतार्थन्यिस्तमायान्ति प्रावृडन्ते घना इव।।’[1]

जैसे, वर्षा ऋतु के अन्त में अपने प्रयोजन को सिद्ध कर मेघ समाप्त हो जाते हैं वैसे ही बुद्धि की प्रत्येक, प्रवणता, भगवदुन्मुखता उद्बुद्ध कर देने पर सम्पूर्ण कर्म कतार्थ हो जाते हैं। अन्यमतानुसार कर्म की ही महिमा से सद्गुरु-लाभ, निर्विघ्न श्रवण, मनन, निदिध्यासन बनता है, कर्म की महिमा से ही निर्विघ्न, निष्प्रत्यूह भगवान् का साक्षात्कार होता है; अस्तु, साक्षात्कारपर्यन्त कर्म-गति अक्षुण्ण है; आदि अनेक तर्क हैं। ‘सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति’ सब वेदों का तात्पर्य भगवान्-प्राप्ति में ही है; ‘तमेतमात्मानं ब्राह्मणा यज्ञेन दानेन तपसा नाशकेन विविदिषक्ति’ इत्यादि, शास्त्रज्ञों ने स्पष्टतः निर्धारित किया है कि जप, तप, दान, व्रत आदिकों का लौकिक फल पुत्र, पशु, धन, स्वर्गादि भी है परन्तु परम फल, महाफल अन्तःकरण की शुद्धि, नित्यानित्य वस्तु-विवेक, शमशमादि षट!सम्पत्ति इहामुत्रार्थ फल-भोग-विराग सम्पत्ति, मुमुक्षुत्व और उत्कट विवि-दिषा आदि ही है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. नैष्कर्म्यासिद्धि 1/49

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
21. गोपी गीत 19 537

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