गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 16वे कह रही हैं, ‘हे कितव! कितोपि, कः भवान इति न विद्मः।’ आप कौन हैं यह हम नहीं जानतीं। पुनः वे अनुभव करती हैं कि भगवान् श्रीकृष्ण कह रहे हैं, ‘इतः परं गतमेव गन्तव्यं' अब तुम अपने-अपने घर लौट जाओ। ‘प्रतियात व्रजं नेह स्थेयं स्त्रीभिः सुमध्यमाः।’ स्त्री को सदा ही पति का अनुगमन करना चाहिए। जड़, रोगी, दुश्शील पति भी स्त्री द्वारा परित्याज्य नहीं है। उत्तर देती हुई वे कह रही हैं- ‘हे धर्मज्ञ! हे धर्म-शास्त्रज्ञ! हम आपसे उपदेश लेने नहीं आईं।’ ‘धर्मज्ञ’ ‘धर्म-शास्त्रज्ञ’ जैसे सम्बोधनों से मानों गोपांगनाएँ व्यंजना कर रही हैं कि आप हमको तो धर्म सिखा रहे हैं परन्तु क्या आप स्वयं धर्म-शासन को नहीं जानते? ‘नापृष्टः कस्यचिद् ब्रूयान्नचायायेन पृच्छतः। बिना जिज्ञासा प्रकट किए धर्म-शास्त्री का धर्मोपदेश नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसी स्थिति में उपेदश व्यर्थ हो जाता है। हम लोगों ने तो आपसे नारी-धर्म की जिज्ञासा नहीं की थी तथापि हम मान लेती हैं कि पति, अपत्य, सुहृद् आदिकों की अनुवृत्ति, अनुसरण ही स्त्री का परम कर्तव्य है। स्वप्रकाश, सर्वाधिष्ठान, परब्रह्म-प्राप्ति हेतु हो सम्पूर्ण धर्म-कर्म किए जाते हैं।– श्रुति-कथन हैः- ब्राह्मण लोग यज्ञ, तप, दान आदिकों के द्वारा सर्वाधिष्ठान, स्वप्रकाश परब्रह्म को ही प्राप्त करने की इच्छा करते हैं। अनेक शास्त्रार्थ हैं। इष्यमाण वेदन में जप, तप, दान आदिकों का अन्वय है-‘प्रधानःप्रधानेनान्वेति’ प्रधान में ही अन्वित होता है। अतः जप, तप, दानादिकों का अन्वय प्रधान इच्छा से होना चहिए; प्रत्यायार्थ-प्रकृत्यर्थ के मध्य में प्रत्ययार्थ का ही प्राधान्य होता है। सन् प्रत्यय है, प्रत्यय वाच्य जो इच्छा है, इच्छा का ही प्राधान्य है इसलिए जप, तप,दान, व्रतादिकों के द्वारा भगवत-प्राप्ति की इच्छा प्राप्त करना, भगवत-वेदन की इच्छा प्राप्त कर लेना ही उनका परम फल है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ बृ०उ० 4/4/22