गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 16श्रीकृष्ण-वेणु-नाद-श्रवण से गोप-बालाओं के हृदय में प्रेम का अजस्र प्रवाह आपूर हुआ, उनके सम्पूर्ण बाँधों का खण्डन हुआ, उनके तन-मन-प्राण-अन्तःकरण सब उस लोकोत्तर प्रवाह में बह चले। ‘यावतः कुरुते जन्तुः सम्बन्धान् मनसः प्रियान्। अर्थात विश्व के सम्बन्धों को प्राणी जितना अधिक बनाता चलता है, अपने हृदय में उतनी ही लौह-शालाकाएँ ठोंक लेता है। तात्पर्य कि जितने मनःप्रिय लौकिक सम्बन्ध बनाए जाते हैं उतनी ही वेदना की सामग्री उपस्थित होती जाती है। ‘कतिनामसुता न लालिताः कतिवा नेहवधूरभुंजि हि। अर्थात कितने जन्म-जन्मान्तरों में, कितने असंख्य पुत्र-प्रपौत्रों का मैंने पालन-पोषण नहीं किया? कितने कल्पान्तरों से कितनी असंख्य कोटि सुकुमारियों का स्पर्श करता आ रहा हँ; आज वे सब कहाँ है? तात्पर्य कि जगत् आविचारतः रमणीय, मृगमरीचिकावत् क्षणभंगुर, विनश्वर, श्रौत-सुख है। अस्तु, निर्विकार, एकरस, अखण्ड, अनन्त, कूटस्थ, अच्युत भगवान् श्रीकृष्ण में नेह लगाने पर मदन-मोहन, श्यामसुन्दर से नाता जोड़ लेने पर सम्पूर्ण दुःख-दर्द क समूल उन्मूलन हो जाता है। संसार के सम्पूर्ण सुख च्युत है; अतः क्षण-भंगुर पदार्थ-जन्यच्युत सुखानुभूति को त्यागकर पति-पुत्र, बन्धु-बान्धव, ऐश्वर्यादि सम्पूर्ण सांसरिक सुखों को त्यागकर अभंगुर, अच्युत, भगवत्-सम्बंध बना लेने पर दुःख भोग का अवसर ही उपस्थित न होगा। |