गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 16गोपिका एकदम सकपका गई, लजा गई; इतने में ही बालकृष्ण दौड़ते हुए आए; दर्शन पाकर गोपिका कृतकृत्य हो गई, धन्य-धन्य हो गई। एक बहुत प्रसिद्ध पद हैः- ‘कोई श्याम मनोहर ल्योरी, सिर धरी मटकिया डोले। गोप-बालाओं की भावतन्मयता के साथ ही साथ उनके कर्तव्य-बोध की भावनाओं को उजागर करना ही ऐसे प्रसंगों का एकमात्र तात्पर्य है; प्रेम-विह्वलतावश क्षणे-क्षणे विस्मृति होती है। तथापि वे स्वधर्म-पालन का भी प्रयास करती हैं। यथार्थतः जो स्वधर्म पालन में रत है वही भगवत्-अभिगमन का अधिकारी भी है- ‘दंहन्त्योऽभिययुः काश्चिद् दोहं हित्वा समुत्सुकाः। अर्थात अपने-अपने जाति, कुल, वर्ण, एवं आश्रमधर्मानुसार किए गए कर्म भगवदभिगमन के हेतु हैं; तात्पर्य कि स्वधर्म के पालक को ही भगवदभिगमन होता है। शास्त्राज्ञानुसार, वर्ण-धर्मानुसार, श्रौत-स्मार्त्त कर्म एवं लोक-वेद-मर्यादाओं का याथातथ्येन पालन ही निस्सन्देह कर्तव्य हैं। कर्तव्य-पालन से भगवदभिगमन होता है; भगवत्-तन्मयता से सम्पूर्ण कर्म में अस्तव्यस्तता आने लगती है। भगवान् श्रीकृष्ण का वेणु-वादन अनादि-अनन्त है; तथापि निरन्तर प्रवाहित इस पीयूष का संग्रह किसी अतिशय भाग्यवान् द्वारा ही सम्भव हो सकता है। जिस महाभागी ने इस निरन्तर प्रवाहित वेणु-नाद का श्रवण कर लिया वह निश्चय ही क्रमशः सर्वस्व का त्यागकर भगवत्-चरणों में लिप्त हो जाता है। उदाहरणतः भादों मास की अधिक वृष्टि के कारण किसी नदी में बाढ़ आ जाने पर उसका बाँध टूट जाय; बाँध टूटने पर जो वेगवती धारा प्रवाहित होगी उसमें पड़े हुए व्यक्ति को थाम लेना सर्वथा अशक्य है; इस प्रवाह में नाव-नाविक सब बहने लगते हैं; तीर पर खडे़ व्यक्ति लाख प्रयास करें, लाख उपदेश दें, सब निष्फल हो जाता है। प्रयास निवृत्ति में ही होता है, भगवत-प्रेमविषयिणी प्रवृत्ति स्वतः उद्बुद्ध है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्री मद्भा० 10/29/5–6