गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 16‘तस्माद् भारत सर्वात्मा भगवान् हरिरीश्वरः। अत्यन्त अप्राप्त में ही विधि होती है; युक्तायुक्त विचार-पूर्वक कर्तव्य ही विधि है। प्रारम्भ वैधी भक्ति से ही होता है; जिस किसी तरह मन को बरबस भगवत्-चरणारविन्दों में लगाने का प्रयास किया जाता है। यद्यपि मन बार-बार विषयों में एवं अनेकानेक तथाकथित स्वजन-परिजनों में दौड़ जाता है,साधक बार-बार मन को खींच-खींच प्रभु-चरणों में लगानें का प्रयास करता है। प्रभु-चरणारविन्दों में स्वाभाविक अनुराग हो तो मन को बरबस लौकिक कर्मों में लगाना पड़ता है। स्वाभाविक प्रवाह को रोकने का प्रयास प्रवाह के वेग को वृद्धिगत कर देता है; इसी तरह परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्णचन्द्र के चरणार-विन्दों में गोप-बालाओं के स्वाभाविक अनुराग-प्रवाह को उनके पति-पुत्र, बन्धु-बान्धव, लोक-वेद-मर्यादा आदि भी अवरुद्ध न कर सके। ‘विसृज्य लज्जां रुरुदुःस्म सुस्वरं गोविन्द दामोदर मरधवेति।’[2] गोप-बालाएँ अपने सम्पूर्ण लौकिक कर्तव्य को करती हुई भी सदा ही श्रीकृष्ण-भाव-तन्मय रहती हैं अतः उनके कर्म अस्त-व्यस्त हो जाते हैं; तथापि वे उन कर्मों को छोड़ती नहीं। ‘न कर्माणि त्यजेत् योगी कर्मभिस्त्यज्यते ह्यासौ।’ योगी कर्म को नही छोड़ता, कर्म ही योगी को छोड़ देते हैं। एक कथा हैः- नन्दराय की बखरी के आसपास घूमती किसी गोपिका ने सम्पूर्ण दिन बिता दिया; सवेरे से शाम हो गई परन्तु वह वहीं घूमती रही; यह देखकर यशोदा रानी उसको बुलाकर पूछने लगी, क्योंरी, तेरे घर में तू ही एक सयानी है? क्या तेरा दही नन्दराय की बखरी में ही बिकता है? और कहीं नहीं बिकता? सबेरे से शाम हो चली, न तेरा दही ही बिक रहा है और न तू कहीं अन्यत्र जा रही है। तेरी मटकिया ज्यों की त्यों भरी है और तू है कि अब भी यहीं घूम रही है? |