गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 432

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 16

व्रज-बालाएँ स्वभावतः ही अपने परम-प्रेमास्पद मदन-मोहन, श्याम-सुन्दर श्रीेकृष्ण में अनुरक्त हैं। इतर-प्रेरणा-निरपेक्ष अनुराग ही स्वाभाविक अनुराग है; जैसे अपनी सन्तति में माता का प्रेम सम्पूर्णतः इतर प्रेरणा-निरपेक्ष ही होता है। भगवत्-चरणारविन्दों में स्वयं अपनी प्रेरणा से उद्बुद्ध राग ही रागानुगा प्रीति है अतः भक्त कामना करता है।

‘या प्रीतिरविवेकानाम् विषयेष्वनपायिनी।
त्वामनुस्मरतः सा में हृदयान्मापसर्पतु।।’[1]

जो प्रीति अविवेकी प्राणी को विषयों में होती है, प्रभु! वैसी ही प्रीति हमें आपके मंगलमय चरणों में हो जाय।

‘अज्ञातपक्षा इव मातरं खगाः स्तन्यं तथा वत्सतरा: क्षुधार्ताः।
प्रियं प्रियेव व्युषितं विषण्णा मनोऽरविन्दाक्ष दिदृक्षते त्वाम्।।’[2]

अर्थात, जैसे अजात-पक्ष पक्षी-शावक व्याकुल होकर अपनी कल्याणमयी, करुणामयी अम्बा की राह देखते हैं अथवा अतृणाद गोवत्स-क्षुधा-निवृत्ति हेतु अत्यन्त उत्सुकता से अपनी माता के हंभा-रव की प्रतीक्षा करते हैं अथवा जैसे कोई प्रेयसी प्रियतमा अपने प्रियतम प्राणनाथ के समागम के लिए अत्यन्त उत्कंठित होती है वैसे ही हे नाथ! हमारा मन भी आपके मंगलमय चरणारविन्दों में सदा-सर्वदा लगा रहे। ऐसी उत्कंठा ही रागानुगा भक्ति का स्वरूप है। वैधी-भक्ति के अन्तर्गत गुरु एवं शास्त्रादेशानुसार यम-नियमपूर्वक मन को भगवद्-चरणों में बरबस लगाना पड़ता है; श्रवण, कीर्तन, मनन, पंचोपचार, षोडशोपचार पूजन आदि विधियों से येन-केन प्रकारेण मन को भगवत्-चरणों में संलग्न करना पड़ता है। विभिन्न हेतुओं सें जैसे संसार के पाप-ताप से शान्ति प्राप्त होगी, मुक्ति मिलेगी, स्वर्ग प्राप्त होगा, धन-धान्य प्राप्त होगा आदि का अवलम्बन कर मन में उत्साह उद्बुद्ध करना होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. विष्णुपुराण 1/20/19
  2. श्रीमद्भा० 6/11/26

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गोपी गीत
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
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