गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 16तथापि ‘क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति’ पुण्य क्षीण होने पर पुनः मृत्युलोक में ही आ जाता है। यही दक्षिणायन-मार्ग का स्वरूप है। उत्तरायण-मार्ग का अनुसरण करने पर जीव क्रमशः दिनाभिमानी, अग्नि-अभिमानी, ज्योति-अभिमानी, अहर-अभिमानी, शुक्लपक्षाभिमानी, उत्तरायणाभिमानी देवता को प्राप्त होता है-तब कोई अमानव पुरुष उसको ब्रह्म-लोक ले जाते हैं। ब्रह्म-लोक में पहुँचने पर मत्र्य-लोक में पुनरावृत्ति नहीं होती। गोपंगनाएँ कह रही हैं, ‘‘हे अच्युत! हम इन दोनों मार्गों को जानती हैं तथापि आपके उद्गीत से मोहित हैं।’’ उनमें पुनः श्रीकृष्ण-कृत प्रश्न का स्फुरण होता है, ‘‘जो दक्षिणायन एवं उत्तरायण दोनों मार्गों को जानता है वह कदापि मोहित नहीं हो सकता फिर तुम कैसे मोहित हो गईं? ‘‘वे उत्तर देती हैं, ‘‘हे श्याम-सुन्दर! हम योगिनी नहीं, वियोगिनी हैं; एतावता इन दोनों संसृतियों को जानते हुए भी आपके मुखचन्द्रनिर्गत वेणु-गीत-पीयूष रस से मोहित हो रही हैं।’’ तात्पर्य कि योगी दोनों प्रकार की गतियों को जानते हैं अतः माया से मोहित नहीं होते; भगवत्-भक्त भी दोनों गतियों को जानता है तथापि भगवत्-प्रेम में मोहित रहता है; श्रीकृष्ण-प्रेम का मोह भी मायातीत एवं रसात्मक है; भगबदनुकम्पा से ही ऐसे मोह की प्राप्ति हो सकती है। गोपांगनाएँ कह रही है, ‘‘हे मदन-मोहन! आप जैसे कितव हैं वैसे ही अच्युत भी हैं। वेणु-गीत-श्रवण से हम ‘विलम्बासहिष्णुतया शीघ्रमेव ता आगमिष्यन्ति’, विलम्ब सहन न कर शीघ्रातिशीघ्र आ जायेंगी यह जानकर ही आपने वेणु-वादन किया; जैसे कोई शठ अपने द्वारा किए गए छल-कपट से किसी-को अत्यन्त दुःखित देखकर भी द्रवित नहीं होता वैसे ही, आप भी हम व्रज-वनिताओं को अपने उद्गीत से मोहिता हो सर्वस्व त्यागकर आई हुई जानते हुए भी अन्तर्धान् हैं।’ ʺपर दुख द्रवहिं संत सुपुनिता‘[2] पुनीत संत वही है जो अन्य के दुख से द्रवित होते हैं। आप तो अपने ही उद्गीत से मोहिता हम लोगों की अपने घरों में गति एवं वृन्दावन धाम में आगति साथ ही हमारे हृदय की ईदृशी विह्वल गति को जानते हुए भी असंग हैं, अद्भुत चित्त है, अच्युत हैं। |