गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 16अनन्त सौन्दर्य-माधुर्य परिपूर्ण परमानुरागिणी आकृष्ट होकर आयी हुई अथवा अनुराग-वशात् स्वयं समागत हम युवतिजनों के त्याग से आप स्वयं ही श्रृंगार-सुख से वंचित हो रहे हैं। ‘‘भ्रमति वनेषु भवान् अबलाकवलाय न तत्र विचित्रम्।’’ हे कितव! आपके लिए इसमें कोई वैचित्र्य भी नहीं है क्योंकि आप तो अबला-भक्षण के लिए ही वन में भटक रहे हैं। प्रथयति पूतनिकैव वधू-वध-निर्दय-बाल-चरित्रम् [1] आपने तो बाल्य-काल में पूतना-वध, स्त्री-वध किया; आपका बाल-चरित्र ही आपकी निर्दयता को पुकार-पुकारकर कह रहा है। ‘‘कितव योषितः’’ का अर्थ ‘‘कितवानां योषितः कितव योषितोपि कस्त्य-जेत्’’ भी हो सकता है। तात्पर्य कि यदि किसी वंचक की स्त्री भी स्वानुराग-वशात् अथवा मोहन-मंत्र वशीभूता हो रात्रि के समय निर्जन वन में निराश्रय हो तो वह भी उपेक्षणीय नहीं; कैमुतिकन्यायतः ‘योषित’ पद-प्रयोग का तात्पर्य यह भी किया जा सकता है कि कितव-योषिता भी उपेक्षणीय नहीं है; हम तो सम्भ्रान्त परिवार की सम्भ्रान्त योषिताएँ हैं जो आपके उद्गीत के वशीभूत हो अपने सर्वस्व का त्यागर आपके सन्निधान में खींची चली आई हैं। सर्वतोभावेन अनन्त ब्रह्माडाधिष्ठान स्वप्रकाश परमात्मा परब्रह्म प्रभु श्रीकृष्ण के प्रति, शठ, कितव, वंचक आदि शब्दों का प्रयोग अत्यन्त असंगत प्रतीत होता है। इनका तात्पर्य यही है कि हम तो अपने सर्वस्व को त्यागकर, यहाँ तक अपने प्रेमास्पद प्राणों को भी त्यागकर आप सर्वाधिष्ठान, सर्वज्ञ, सर्व-शक्तिमान् के शरण में आईं और आप अन्तर्धान हो गए यह अनुचित है, आपके लिए अशोभनीय है। रसिक तो कहते है कि वस्तुतः भगवान् को वेद-मंत्रों द्वारा की गई अत्यन्त सार-गर्भित स्तुतियाँ भी उतनी प्रिय नहीं, जितनी इन वनचरी गोपालियों के प्रेम-विभोर हृदय की प्रेम-बिह्वल अटपटी वाणियाँ। ‘‘गतिविदोऽपि तदोदृगीतमोहिताः’’ हे अच्युत! हम दक्षिणायन एवं उत्तरायण दोनों गतियों को जानती हैं। गृहस्थधर्मांनुसरण करते हुए पति-पुत्र, बन्धु-बान्धव, लोक-वेद, सत्यासत्य, धर्माधर्म का समाश्रयण करने पर दक्षिण-यन मार्ग का अनुसरण करना होगा; वेद-शास्त्रानुमोदित क्रिया-कलापों का अनुष्ठान करते हुए जीव धूम-मार्ग से क्रमशः धूमाभिमानी, रात्रि-अभिमानी, कृष्णपक्षाभिमानी, दक्षिणायन-अभिमानी देवता को प्राप्त करते हुए चान्द्रमसी देवता को प्राप्त कर चान्द्रमस लोक में सम्पूर्ण सुखों का उपभोग करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीत-गोविंद, 17/7