गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 16‘‘सर्वधर्मान् परित्ययज्य मामेकं शरणं व्रज। ‘‘सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते। आदि अनेकानेक वाक्य ही भगवद्-उद्गीत हैं; यदि भगवत्-उदगीतों में यथार्थ-बुद्धि न हो तो अनादिकाल से प्रचलित अनेकानेक सम्प्रदायों की परम्पराएँ; अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद, द्वेताद्वैतवाद आदि एवं इन पर आधारित विभिन्न उपसनाएँ, संसार-त्याग सब सर्वथा निरर्थक हो जायँ। गोपांगनाओं में स्फुरण होता है कि भगवान कृष्ण प्रश्न कर रहे हैं’ ʺहे सुन्दरियोंǃ हमारे कपटी स्वभाव को जानती हुई भी तुम हमारे सन्निधान में क्यों चली आईं?’’ वे उत्तर देती हैं, ʺहे कितव! हम तुम्हारे उद्गीत से मोहित हैं; मोहित प्राणी से कौन अपराध नहीं बनता? मोहवश प्राणी विवेक-शून्य हो जाता है; उसमें कर्तव्याकर्तव्य का ज्ञान भी नहीं रह जाता। एतावता हम भी आपके उद्गीत् से मोहित हो आपके सन्निधान में चली आई हैं।’’ कितव योषितः कस्त्यजेन्निशि; ‘कितव’ शब्द का अर्थ है कपटी, धूर्त, वंचक। वे कह रही हैं, ‘‘हे कितव! एवं भूत्वा स्वयं आगताः आकृष्य समानीताः योषितः वने कितवोपि कस्त्यजेत्?’’ स्वभाव से ही स्त्रियाँ कोमलांतः-करणवाली, अनुरागिणी होती हैं; इन स्नेहशीला, सरल-हृदया योषिताओं के साथ किसी कितव का भी कौटिल्य सर्वथा अनुचित है; हम व्रजांगनाएँ तो अपने पति-पुत्र, बन्धु-बान्धव, लोक-वेद, सत्यासत्य, धर्माधर्म सम्पूर्ण का परित्याग कर आपके विरह में दशमीं दशा को प्राप्त हो रही हैं; हे कितव! ऐसी योषिताओं की उपेक्षा आपके सिवा और कौन कर सकता है? कोई कामी वंचक भी रात्रि के समय निर्जन वन में आई हुई अनुरागिणी युवतियों का त्याग नहीं कर सकता परन्तु आप तो हमारी उपेक्षा ही कर रहे हैं। आप वंचक-शिरोमणि हैं; रागी न होने पर भी मात्र मानवता की दृष्टि से भी रात्रि के समय निर्जन वन में कोमलान्तःकरण कोमलांगी निराश्रय अशरण युवतियों की उपेक्षा कोई नहीं करता। ‘‘हे कितव! वंचितोपि भवान्’’ वस्तुतः तुम ही वंचित हो रहे हो। |