गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 16गोपांगना–जनों में स्फुरण होता है मानों भगवान् श्रीकृष्ण कह रहे हैंʺ हे गोपालियोंǃ तुम तो बहुत चतुर हो। अभी–अभी तो कह रही थीं कि आपने इन कुटिल कुन्तलों को सधर्मी जानकर ही इनको सिर पर धारण किया है; जैसे ये कुन्तल सचिक्कण एवं स्निग्ध होते हुए भी अत्यन्त कृष्ण हैं, अत्यन्त कुटिल हैं वैसे ही आप भी स्निग्ध होते हुए अत्यन्त कुटिल एवं कृष्ण हैं। हे गोप-वनिताओ! हमारे इस स्वभाव से परिचित होते हुए भी तुम पहले से ही सावधान क्यों न हो गईं? क्यों वृन्दारण्य तक दौड़ी चली आईं?’’ इस प्रश्न का उत्तर देती हुई वे कह रही हैं, ‘गतिविदोपि वयं तव उद्गीत-मोहिताः आगताः’ आपकी कुटिल गति को जानते हुए भी आपके उद्गीत से मोहित होकर हम लोग आ गईं हैं। जैसे, मृगी व्याध के वीणा-निनाद से मोहित हो उसकी सन्निधि में स्वाभावतः पहुँच जाती हैं, वैसे ही हम भी आपके उद्गीत से मोहित हो आपकी सन्निधि में खींची चली आई हैं। अथवा, ‘गतीर्गीतगतीर्वेति इति गतिवद् तस्य गतिविदः’ आप गीत की विशेताओं को जानते हैं; ‘वेणुवद्य उरूधा निजशिक्षाः’ आप वेणु-वादन की परम्परागत शिक्षा-सम्पन्न हैं; साथ ही, निज विज्ञानजन्य नूतन आविष्कारों से भी सम्पन्न हैं। जैसे कोई विशेष वैज्ञानिक भिन्न-भिन्न विषयों में असाधारण विज्ञान प्रकट करते हैं, आविष्कार करते हैं वैसे ही ‘उरूधा निजशिक्षाः’, अनेक विधि प्रकार के स्वाध्याय से अनेकानेक नई गतियों का आविष्कार भी श्रीकृष्ण ने किया। ‘अद्भुत रामायण’ में ऐसी एक कथा है। एक समय देवर्षि नारद कहीं जा रहे थे; मार्ग में उनको भगवती लक्ष्मीं-सहित भगवान् मिल गए; वार्तालाप के प्रसंग में पता लगा कि भगवती लक्ष्मी एवं उनकी सखियों सहित भगवान तुंबरु का संगीत सुनने जा रहे हैं। महर्षि नारद को आश्चर्य हुआ कि जिस संगीत को सुनने स्वयं श्री भगवान् भगवती लक्ष्मीं के साथ पधार रहे हैं वह कितना महत्त्वपूर्ण होगा? संगीत के विशिष्ट महत्त्व को समझकर देवर्षि नारद भी संगीत सीखने के लिये उत्कंठित हो उपयुक्त गुरु की खोज में लग गए। उत्तराखण्ड में कोई उलूक-बन्धु नामक विशिष्ट संगीतज्ञ उलूक स्वरूप में रहते थे; देव, दानव, गन्धर्व, किन्नर आदि भी उनके पास संगीत सीखने आते; उनकी योग्यता का अनुभव कर नारदजी ने भी उनको अपना गुरु बना लिया; संगीत सीख लेने पर नारद जी को तुंबरु के प्रति स्पर्धा हुई। तुंबरु को गायन-कला में परास्त करने नारद जी उसके घर पहुँच गए। |